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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'जी, आपके जाने के बाद बहुत रोई। बोली - बाबा से कभी न बोलूंगी..।'

राणा साहब ने गले-से मफलर खोलते हुए एक छिपी दृष्टि नीला पर डाली और बोले-’नटखट कहीं की 1 यदि साथ होती तो बरसात का पता चलता।'

रेखा ने गुनगुनाते हुए अपने कमरे में प्रवेश किया। साड़ी के ऊपर ओढी हुई कश्मीरी शाल उतारकर उसने कुर्सी पर फेंक दी और सामने की खिडकी खोल दी। वर्षा अभी तक हो रही थी। पानी के छींटों में अभी वही मस्ती थी जो उसके अपने मन की गहराइयों में थी। वह साड़ी का पल्ला धीरे-धीरे उगलियों में लपेटकर फिर उसे खोलने लगी। एकाएक उसके कानों में किसी के कराहने की ध्वनि आई जो वर्षा की धीमी आवाज में मिली हुई-सी थी। उसका मन भय से धड़कने लगा! उसने पलटकर चारों ओर देखा। वहां कोई भी न था।

वह धीरे-धीरे पांव उठाती खिड़की के पास आई। उसने उंगली से उतरी हुई साड़ी को फिर से लपेट लिया और विस्मय से बाहर झांकने लगी। अन्धेरे में वर्षा के गिरते हुए मोतियों के अतिरिक्त कुछ भी न था। कराहने की ध्वनि फिर सुनाई दी। वह सिर से पांव तक कांप गई और एक ओर हटकर बाहर के बरामदे में देखने लगी। कोई व्यक्ति खिडकी की दीवार से लगा कराह रहा था। रेखा को देखते ही वह उठ खडा हुआ। रेखा के मुंह से हल्की सी चीख निकलकर रह गई। वह जोर से चिल्लाना चाहती थी परन्तु उसके गले ने, जो भय से खुश्क हो रहा था, उसका साथ न दिया। वह कठिनाई से केवल इतना ही कह पाई,’कौन-?'

वह व्यक्ति खिड़की के कुछ और समीप आ गया। कमरे से बाहर जाती रोशनी में रेखा उसे अब देख सकती थी। वह भारी- भरकम मिलिटरी कोट पहने हुए था। उसका दायां बाजू कोट से बाहर था, जिस पर लहू के धब्बे यह बता रहे थे कि वह अभी थोडी देर पहले ही घायल हुआ है। वाजू पर खून देखकर रेखा का मन कांप उठा। उसे इस तरह भय और घबराहट से व्यग्र. देखकर वह थोडा और निकट आ गया और बोला-’घबराइए नहीं, मैं एक शरीफ इन्सान हूं।'

'परन्तु इतनी रात गए यहां..'

'भाग्य घसीट लाया।'

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