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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'तुम्हारे बाजू से तो...'

'लहू बह रहा है, इसलिए कुछ समय यहां आराम करने की आज्ञा चाहता हूं..'

'ठहरो... मैं बाबा को...'

'नहीं, किसी की कोई आवश्यकता नहीं। विश्वास नहीं तो मैं चला जाता हूं।' कहकर वह बरामदे की ओर उतरने लगा।

'नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं परन्तु'

'मैं समझ गया..... आखिर तुम ठहरीं लडकी... इतनी रात गए मुझे कैसे सहारा दे सकती हो...'

उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना वह बरामदे से नीचे उतर गया। उसी समय विज़ली चमकी और उसने अपने आपको झट एक खम्भे के पीछे छिपा लिया। जोर से वादल की कड़क सुनाई दी और समस्त वातावरण कांपकर रह गया।

रेखा करुणा से अभिभूत हो गई। आखिर उसके मुंह से निकल ही गया-’सुनों...'

'जी..' वह दोबारा वरामदे में पांव रखते हुए बोला- जैसे उसे इसी शब्द की प्रतीक्षा थी।

'इतनी वर्षा में अब कहां जाओगे?

'जहां भाग्य ले जाए...'

-’धन्यवाद' अजनबी यह कहते ही खिडकी फांदकर भीतर आ गया। रेखा ने उसे जलती हुई अंगीठी के पास बैठ जाने का संकेत किया। वह दुबककर एक कोने में वैठ गया। उसके सब कपड़े भीगे हुए थे।

रेखा ने छिपी दृष्टि से उस अजनबी को निहारा। अभी वह युवाअवस्था की कुछ ही मंजिलें पूरी कर पाया था। देखने में भलामानस और पढा-लिखा प्रतीत होता था। अंग्रेजी ढंग के कटे हुए बाल और भली-सी सूरत पर दो बडी-बडी सुन्दर आंखें थीं, जिनमें उन्माद का गहरा सरोवर लहरें मार रहा था!

काले घुघरांले बाल वर्षा से भीगकर एक लट बन गए थे, जो वार-बार माथे पर आ जाया करते और जिन्हें वह अपने बांए हाथ से हटा देता था। वह रह-रहकर रेखा की ओर देख लेता, पर वोलना चाहकर भी न बोल पाता।

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