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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

घर का रंग-ढंग अनोखा होता जा रहा था, जैसे अज्ञात भय और चिंता से वातावरण क्षुब्ध हो उठा हो। हर समय, हर घड़ी उदासीन, मौनता छाई रहती। रेखा का बुरा हाल था। वह लज्जा और डर से बाबा के सामने तक न जाती।

रात काफी बीत चुकी थी, पर रेखा की आंखों में नींद न थी। वह कभी लेटती तो कभी दो तकियों को एक के ऊपर एक रखकर पीठ के सहारे बैठ जाती। वह अपने चारों ओर फैले जाल से मुक्ति चाहती थी। नाना प्रकार के उपाय सोचती, पर किसी पर टिक न पाती।

अचानक उसके कानों में सीटी का चिर-परिचित स्वर सुनाई पड़ा। उसका मुरझाया हुआ मुख खिल उठा। उसने रजाई उठा- कर फेंक दी। नीचे उतरकर चप्पल टटोलने लगी। पर बगल में मां को पड़ी देख कलेजा फड़क उठा, और पुनः बिस्तर पर निश्चेष्ट पड़ गई। उसे लगा जैसे लज्जा और संकोच ने उसके पैरों में लौह-श्रृंखला डाल दी हो और वह एक पत्र भी आगे वढ़ा सकने मंो असमर्थ है।

सीटी का स्वर बन्द हो गया और पुनः चारों ओर सन्नाटा नर्तन करने लगा। उसने उठकर बत्ती बुझा दी और बिस्तर पर जाकर लेट रही। उसे नींद आई या नहीं, भगवान ही जाने।

दूसरी शाम जब रेखा की सहेली मालती कॉलेज से अकेली घर लौट रही थी तो मोहन ने उसे रास्ते में पुकारकर रोक लिया। अपरिचित व्यक्ति को इस तरह नाम लेकर अपने को पुकारता देख, पहले तो उसने आश्चर्य से उसे देखा- फिर डरकर जरा परे हट गई।

'आप तो शायद मुझे पहचानती होंगी, परन्तु... ’

'परन्तु इस तरह पुकारना, रास्ता रोकना अशिष्टता है महाशय..’ मैंने तो कभी आपको देखा भी नहीं। मालती ने - घबराहट को छिपाते हुए कहा।

'आप रेखा के साथ तो पढ़ती हैं...।'

'जी... परन्तु आप उसके कौन होते हैं?'

'जरा धीरे बोलिए - एक सन्देश उन तक पहुंचाना है।' ‘कैसा सन्देश?'

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