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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

मोहन ने जेब से एक पत्र निकालकर मालती की ओर बढ़ा दिया। मालती इस अशिष्ट व्यक्ति की उद्दण्डता पर आग-बबूला हो गई। उसने क्रुद्ध होकर कहा-’क्या आपने मुझे आवारा लड़कियों में समझ लिया है। मैं निम्न श्रेणी की नारियों में नहीं कि जिस-तिसका पत्र पहुंचाती फिरूं। यदि आप शरीफ हैं तो शराफत से पेश आइए, नहीं तो......’

‘नहीं तो आप चप्पलों का सहारा लेंगी, यही न। नहीं रोकूंगा आपको इस शुभ कार्य के लिए, परन्तु मेरी अन्तिम कर-बद्ध प्रार्थना है कि इस पत्र को रेखा तक पहुंचा दीजिए। बेचारी बड़ी मुसीबत में है...'

मालती को यह आदमी विचित्र-सा लगा। वह इस तरह बातें कर रहा था जैसे उससे उसकी जान-पहचान नयी नहीं, बहुत पुरानी हो। रेखा की मुसीबत की बात सुन मालती के कोध का पारा नॉर्मल पर उतर आया। उसने उसके हाथ की चिट्ठी झटके से ले ली और बिना उसकी ओर देखे तेजी से एक ओर वढ़ गई।

मोहन अपनी विजय पर मुस्करा पड़ा।

दूसरे दिन रेखा कॉलेज की लाइब्रेरी में बैठी कुछ पढ़ने में तल्लीन थी कि पीछे से आकर मालती ने चुपके से चुटकी काट ली। वह उछल पड़ी। मुड़कर देखा तो बोल उठी-’ओह तुम!'

'जी मैं... तुम क्या समझी, कोई ससुराल से लेने आया है?'

मालती की यह बात सुन पास बैठी सब लड़कियां खिल- खिलाकर हंस पड़ीं। रेखा निरुत्तर हो लज्जा से आरक्त हो गई। मालती रेखा को खींचती हुई बाहर ले आई। घास के मैदान में पहुंचकर उसने उसे इस तरह झटके से खींचा कि वह घास पर लुढ़क पड़ी। मालती स्वयं भी, तब उसके पास वैठ गई और स्थिर दृष्टि से उसको देखने लगी।

‘क्या बात है?'

मालती को इस तरह घूरते देख, रेखा के मन का चोर जाग रूक हो उठा। उसने सोचा क्या मालती भी इस प्रेम-काण्ड से परिचित हो गई है? सन्देह-निवृत्ति के लिए उसने पूछा-’क्या देख रही हो इन आंखों में इस तरह?'

'एक बात पूछूं..... बताओगी?'

'हां... पूछो...!'

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