ई-पुस्तकें >> सरल राजयोग सरल राजयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामी विवेकानन्दजी के योग-साधन पर कुछ छोटे छोटे भाषण
हमें यम-नियम का अभ्यास जीवनभर करना चाहिए। जहाँ तक दूसरे अभ्यासों का सम्बन्ध है, हमें ठीक वैसा ही करना है, जैसा कि जोंक बिना दूसरे तिनके को दृढ़तापूर्वक पकड़े पहलेवाले को नहीं छोड़ती है। दूसरे शब्दों में, हमें अपने पहले कदम को भलीभांति समझकर उसका पूर्ण अभ्यास कर लेना है और तब दूसरा उठाना है।
इस पाठ का विषय प्राणायाम अर्थात् प्राण का नियमन है। राजयोग में प्राणवायु चित्तभूमि में प्रविष्ट होकर हमें आध्यात्मिक राज्य में ले जाती है। यह प्राणवायु समस्त देहयन्त्र का मूल चक्र है। प्राण प्रथम फुफ्फुस पर क्रिया करता है, फिर फुफ्फुस हृदय पर, हृदय रक्त-प्रवाह पर, रक्त-प्रवाह मस्तिष्क पर तथा मस्तिष्क मन पर क्रिया करता है। जिस प्रकार इच्छा-शक्ति बाह्य संवेदन उत्पन्न कर सकती है, उसी प्रकार बाह्य संवेदन इच्छा-शक्ति को जागृत कर सकता है। हमारी इच्छा-शक्ति दुर्बल है, हम जड़त्व के इतने बन्धन में हैं कि हम उसकी सामर्थ्य को नहीं जान पाते। हमारी अधिकांश क्रियाएँ बाहर से भीतर की ओर होती हैं। बाह्य प्रकृति हमारे आन्तरिक साम्य को नष्ट कर देती है, किन्तु जैसा कि हमें चाहिए, हम उसके साम्य को नष्ट नहीं कर पाते। किन्तु यह सब भूल है। वास्तव में बाह्य शक्ति की अपेक्षा हमारे भीतर की शक्ति अधिक प्रबल है।
वे ही महान् सन्त और आचार्य हैं, जिन्होंने अपने भीतर के विचारराज्य को जीता है। और इसी कारण उनकी वाणी में शक्ति थी। एक उँची मीनार पर बन्दी किये गये एक मन्त्री की कहानी है जो अपनी पत्नी द्वारा मृग, मधु, रेशमी सूत, सुतली और रस्सी की सहायता से मुक्त हुआ। इस रूपक में स्पष्ट दर्शाया गया है कि किस प्रकार प्रथम रेशमी धागे की भांति प्रथम प्राणवायु का नियमन करते हुए मनोराज्य को जीता जा सकता है। इसी प्राणवायु के नियमन से एक के बाद एक विभिन्न शक्तियों को वशीभूत करके अन्त में हम एकाग्रतारूपी रस्सी पकड़ सकेंगे, जिसके सहारे हम देहरूपी कारागार से उद्धार पाकर मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे। मुक्ति प्राप्त कर लेने पर उसके लिए प्रयुक्त साधनों का हम परित्याग कर सकते हैं।
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