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सूक्तियाँ एवं सुभाषित

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9602

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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।


44. हो सकता है कि एक पुराने वस्त्र को त्याग देने के सदृश, अपने शरीर से बाहर निकल जाने को मैं बहुत उपादेय पाऊँ। लेकिन मैं काम करना नहीं छोडूँगा। जब तक सारी दुनिया सत्य न जान ले, मैं सब लोगों को यही प्रेरणा देता रहूँगा कि वह परमात्मा के साथ एक है।

45. जो कुछ मैं हूँ जो कुछ सारी दुनिया एक दिन बनेगी, वह मेरे गुरु श्रीरामकृष्ण के कारण है। उन्होंने हिन्दुत्व, इस्लाम और ईसाई मत में वह अपूर्व एकता खोजी, जो सब चीजों के भीतर रमी हुई है। श्रीरामकृष्ण उस एकता के अवतार थे, उन्होंने उस एकता का अनुभव किया और सबको उसका उपदेश दिया।

46. अगर स्वाद की इन्द्रिय को ढील दी, तो सभी इन्द्रियाँ बेलगाम दौडेंगी।

47. ज्ञान, भक्ति, योग और कर्म - ये चार मार्ग मुक्ति की ओर ले जानेवाले हैं। हर एक को उस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए, जिसके लिए वह योग्य है, लेकिन इस युग में कर्मयोग पर विशेष बल देना चाहिए।

48. धर्म कल्पना की चीज नहीं, प्रत्यक्ष दर्शन की चीज है। जिसने एक भी महान् आत्मा के दर्शन कर लिये, वह अनेक पुस्तकी पण्डितों से बढ़कर है।

49 एक बार स्वामीजी किसी की बहुत प्रशंसा कर रहे थे, इस पर उनके पास बैठे हुए किसी ने कहा, ''लेकिन वे आपको नहीं मानते'' - इसे सुनकर स्वामीजी ने तत्काल उत्तर दिया : ''क्या ऐसा कोई कानूनी शपथ-पत्र लिखा हुआ है कि उन्हें मेरी हर बात माननी ही चाहिए? वे अच्छा काम कर रहे हैं और इसलिए प्रशंसा के पात्र हैं।''

50. सच्चे धर्म के क्षेत्र में, कोरे पुस्तकीय ज्ञान का कोई स्थान नहीं।

51. पैसेवालों की पूजा का प्रवेश होते ही धार्मिक सम्प्रदाय का पतन आरम्भ हो जाता है।

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