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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


यद्यपि उन्होंने उस समय तक एक भी कहानी लिखी नहीं थी, फिर भी कहानियों के विषय में उनका विशाल अध्ययन था (कम-से-कम हम लोगों को ऐसा ही लगता था) और उनका कहानी-कला पर पूर्ण अधिकार था।

कहानियों की टेकनीक के बारे में उनका सबसे पहला सिद्धांत था कि आधुनिक कहानी में आदि, मध्य या अंत, तीनों में से कोई-न-कोई तत्व अवश्य छूट जाता है। ऐसा नहीं होना चाहिए। उनका कहना था कि कहानी वही पूर्ण है जिसमें आदि में आदि हो, मध्य में मध्य हो और अंत में अंत हो। इनकी व्याख्या वे यों करते थे : कहानी का आदि वह है जिसके पहले कुछ न हो। बाद में मध्य हो, मध्य वह है जिसके पहले आदि हो बाद में अंत हो। अंत उसे कहते हैं जिसके पहले मध्य हो बाद में रद्दी की टोकरी हो।

कहानियों की टेकनीक के बारे में उनका दूसरा सिद्धांत यह था कि कहानियाँ चाहे छायावादी हों या प्रगतिवादी, ऐतिहासिक हों या अनैतिहासिक, समाजवादी हों या मुसलिमलीगी, किंतु उनसे कोई-न-कोई निष्कर्ष अवश्य निकलना चाहिए। वह निष्कर्ष समाज के लिए कल्याणकारी होना चाहिए ऐसा उनका निश्चित मत था और इसलिए यद्यपि उन्होंने जीवन भर कोई कहानी नहीं लिखी पर वे अपने को कथा-साहित्य में निष्कर्षवाद का प्रवर्तक मानते थे। कथा-शिल्प की पूरी प्रणाली वे इस प्रकार बताते थे :

कुछ पात्र लो, और एक निष्कर्ष पहले से सोच लो, जैसे... यानी जो भी निष्कर्ष निकालना हो, फिर अपने पात्रों पर इतना अधिकार रखो, इतना शासन रखो कि वे अपने-आप प्रेम के चक्र में उलझ जाएँ और अंत में वे उसी निष्कर्ष पर पहुँचें जो तुमने पहले से तय कर रखा है।

मेरे मन में अक्सर इन बातों पर शंकाएँ भी उठती थीं, पर निष्कर्षवाद के विषय में उन्होंने मुझे बताया कि हिंदी में बहुत-से कहानीकार इसीलिए प्रसिद्ध हो गए हैं कि उनकी कहानी में कथानक चाहे लँगड़ाता हो, पात्र चाहे पिलपिले हों, लेकिन सामाजिक तथा राजनीतिक निष्कर्ष अद्भुत होते हैं।

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