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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


मेरी दूसरी शंका कथावस्तु की प्रेम संबंधी अनिवार्यता के विषय में थी। मैं अक्सर सोचता था कि जिंदगी में अधिक-से-अधिक दस बरस ऐसे होते हैं जब हम प्रेम करते हैं। उन दस बरसों में खाना-पीना, आर्थिक संघर्ष, सामाजिक जीवन, पढ़ाई-लिखाई, घूमना-फिरना, सिनेमा और साप्ताहिक पत्र, मित्र-गोष्ठी इन सबों से जितना समय बचता है, उतने में हम प्रेम करते हैं। फिर इतना महत्व उसे क्यों दिया जाए? सैर-सपाटा, खोज, शिकार, व्यायाम, मोटर चलाना, रोजी-रोजगार, ताँगेवाले, इक्केवाले और पत्रों के संपादक, सैकड़ों विषय हैं जिन पर कहानियाँ लिखी जा सकती हैं, फिर आखिर प्रेम पर ही क्यों लिखी जाएँ?

जब मैंने माणिक मुल्ला से यह पूछा तो सहसा वे भावुक हो गए और बोले, 'तुम्हें बांग्ला आती है?' मैंने कहा, 'नहीं, क्यों?' तो गहरी साँस ले कर बोले, 'टैगोर का नाम तो सुना ही होगा! उन्होंने लिखा है, 'आमार माझारे जो आछे से गो कोनो विरहिणी नारी!' अर्थात मेरे मन के अंदर जो बसा है वह कोई विरहिणी नारी है। और वही विरहिणी नारी अपनी कथा कहा करती है- बार-बार तरह-तरह से।' और फिर अपने मत की व्याख्या करते हुए बोले कि विरहिणी नारियाँ भी कई भाँति की होती हैं - अनूढ़ा विरहिणी, ऊढ़ा विरहिणी, मुग्धा विरहिणी, प्रौढ़ा विरहिणी आदि-आदि, तथा विरह भी कई प्रकार के होते हैं - बाह्य-परिस्थितिजन्य, आंतरिक-मन:स्थितिजन्य इत्यादि। इन सबों पर कहानियाँ लिखी जा सकती हैं; और माणिक मुल्ला का चमत्कार यह था कि जैसे बाजीगर मुँह से आम निकाल देता है वैसे ही वे इन कहानियों से सामाजिक कल्याण के निष्कर्ष निकाल देने में समर्थ थे।

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