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श्री दुर्गा सप्तशती (दोहा-चौपाई)

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9644

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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में

काल सत्रु नासति तुम माता।
रूप चरित चिन्तन नहिं आता।।
रूप देहि जय दे महतारी।
यश दे मां सब सत्रु संहारी।
हरती जगदम्बा जन अघ गन।
भगति भाव पूजत जब जे जन।।
रूप देहि जय दे महतारी।
यश दे मां सब सत्रु संहारी।।
जे जन जपत भगति उर लाई।
मेटत मातु रोग समुदाई।
रूप देहि जय दे महतारी।
यश दे माँ सब सत्रु संहारी।।
श्रद्धा भक्ति सहित नित अर्चन।
चण्डी सतत जपत तोहि जे जन।।
रूप देहि जय दे महतारी।
यश दे मां सब सत्रु संहारी।।


सुख दे मां सौभाग्य दे, सारे रोग निवारि।
जय दे यश दे रूप दे, माता सत्रु संहारि।।५।।

बल दे हे चण्डी महतारी।
सव प्रकार द्वेषिन निरवारी।।
रूप देहि जय दे महतारी।
यश दे मां सव सत्रु संहारी।।
तुम अम्बे कल्यान विधायिनि।
शुभकारी सम्पदा प्रदायिनि।।
रूप देहि जय दे महतारी।
यश दे मां सब सत्रु संहारी।।
निज किरीट तव चरननि डारी।
करत प्रनाम असुर असुरारी।।
रूप देहि जय दे महतारी।
यश दे मां सब सत्रु संहारी।।
लक्ष्मी तथा सुयश विस्तारी।
देहु मातु विद्या उपकारी।।
रूप देहि जय दे महतारी।
यश दे मां सब सत्रुसंहारी।।


दैत्य दर्प हारिनि शिवा, आयो सरन तिहारि।
जय दे यश दे रूप दे, माता सत्रु संहारि।।६।।

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