लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> हौसला

हौसला

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9698

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

198 पाठक हैं

नि:शक्त जीवन पर 51 लघुकथाएं

समाज की विकलांग सोच और ये लघुकथाएं

-डॉ. अशोक भाटिया

आठवें दशक में जब देश की राजनीतिक-सामाजिक, आर्थिक स्थितियाँ तेजी से बदल रही थीं, तब हिंदी में लघुकथा-साहित्य की धीमी गति से प्रवाहित धारा ने प्रचंड रूप धारण कर लिया। दिखाई दिया कि समसामयिक विषयों पर तो लघुकथा केंद्रित है ही, उनमें भी गरीबी, पुलिस, नेता और मंहगाई पर ही मुख्यत: कैद्रित है। नवें दशक में हिंदी लघुकथा में विषय और शिल्प-दोनों दृष्टियों से विविधता दिखाई दी। आज हिंदी लघुकथा ने बहुत-से पड़ाव पार कर लिए हैं। यह निश्चित है कि रचना अपने समय की तस्वीर हो तो वह प्रतिनिधि रचना बन सकती है। 'जो अपने समय के प्रति ईमानदार नहीं, वह अनन्त काल के प्रति क्या ईमानदार होगा?' हरिशंकर परसाई का यह कथन साहित्य की सभी विधाओं पर लागू होता है।

भारत में शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति राजनीतिक और सामाजिक दोनों दृष्टियों से उपेक्षित रहे हैं। इसका प्रमाण यह है कि सन् 1947 से 2001 तक तो विकलांगों को गिनने की ही आवश्यकता नहीं समझी गई। सरकारी आकड़ों के मुताबिक भारत में दो करोड़ विकलांग हैं, जबकि अन्य एजेंसियों के मुताबिक इनकी संख्या कम-से-कम सरकारी-गैर सरकारी नौकरियों का एक प्रतिशत भी विकलांगों को नहीं दिया गया। इससे भारतीय शासन-प्रशासन की विवेकहीनता और संवेदनहीनता उजागर होती है। हमारी सामाजिक संवेदनहीनता का प्रमाण यह है कि हम नेत्रदान, रक्तदान और किडनी (गुर्दा) दान करने में भी संकोच करते हैं, जबकि मृत्यु के बाद सभी अंग अग्नि में भस्म हो जाते हैं। इसी के चलते दक्षिण भारत के राज्यों में श्रीलंकाई लोगों द्वारा दान की राह दिखाई है। प्रसिद्ध साहित्यकार विष्णु प्रभाकर की इच्छानुसार उनकी मृत देह 'एम्स' (भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान) को दान की गई थी। इसका अनुसरण करने के लिए विवेक और साहस दोनों की आवश्यकता है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book