ई-पुस्तकें >> कबीरदास की साखियां कबीरदास की साखियांवियोगी हरि
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जीवन के कठिन-से-कठिन रहस्यों को उन्होंने बहुत ही सरल-सुबोध शब्दों में खोलकर रख दिया। उनकी साखियों को आज भी पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है, मानो कबीर हमारे बीच मौजूद हैं।
चांणक का अंग
इहि उदर कै कारणे, जग जाच्यों निस जाम।
स्वामीं-पणौ जो सिरि चढ़्यो, सर् यो न एको काम।। 1।।
इस पेट के लिए दिन-रात साधु का भेष बनाकर वह मांगता फिरा, और स्वामीपना उसके सिर पर चढ़ गया। पर पूरा एक भी काम न हुआ - न तो साधु हुआ और न स्वामी ही।
स्वामी हूवा सीतका, पैकाकार पचास।
राम-नाम कांठै रह्या, करै सिषां की आस।। 2।।
स्वामी आज-कल मुफ्त में, या पैसे के पचास मिल जाते हैं, मतलब यह कि सिद्धियां और चमत्कार दिखाने और फैलाने वाले स्वामी। रामनाम को वे एक किनारे रख देते हैं, और शिष्यों से आशा करते हैं लोभ में डूबकर।
कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि धरी खटाइ।
राज-दुबारां यौ फिरै, क्यूं हरिहाई गाइ।। 3।।
कलियुग के स्वामी बड़े लोभी हो गये हैं, और उनमें विकार आ गया है, जैसे पीतल की बटलोई में खटाई रख देने से। राज-द्वारों पर ये लोग मान-सम्मान पाने के लिए घूमते रहते हैं, जैसे खेतों में बिगड़ैल गायें घुस जाती हैं।
कलि का स्वामी लोभिया, मनसा धरी बधाइ।
दैंहि पईसा व्याज कौं, लेखां करतां जाइ ।। 4।।
कलियुग का यह स्वामी कैसा लालची हो गया है! लोभ बढ़ता ही जाता है इसका। व्याज पर यह पैसा उधार देता है और लेखा-जोखा करने में सारा समय नष्ट कर देता है।
'कबीर' कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ।
लालच लोभी मसकरा, तिनकूं आदर होइ ।। 5।।
कबीर कहते हैं- बहुत बुरा हुआ इस कलियुग में, कहीं भी आज सच्चे मुनि नहीं मिलते। आदर हो रहा है आज लालचियों का, लोभियों का और मसखरों का।
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