ई-पुस्तकें >> कबीरदास की साखियां कबीरदास की साखियांवियोगी हरि
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जीवन के कठिन-से-कठिन रहस्यों को उन्होंने बहुत ही सरल-सुबोध शब्दों में खोलकर रख दिया। उनकी साखियों को आज भी पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है, मानो कबीर हमारे बीच मौजूद हैं।
बाह्मण गुरु जगत का, साधू का गुरु नाहिं।
उरझि-पुरझि करि मरि रह्या, चारिउं वेदां माहिं।।6।।
ब्राह्मण भले ही सारे संसार का गुरु हो, पर वह साधु का गुरु नहीं हो सकता। वह क्या गुरु होगा, जो चारों वेदों में उलझ-पुलझकर ही मर रहा है।
चतुराई सूवै पढ़ी, सोई पंजर माहिं।
फिरि प्रमोधै आन कौं, आपण समझै नाहिं ।। 7।।
चतुराई तो रटते-रटते तोते को भी आ गई, फिर भी वह पिंजड़े में कैद है। औरों को उपदेश देता है, पर खुद कुछ भी नहीं समझ पाता।
तीरथ करि करि जग मुवा, डूंबै पाणी न्हाइ।
रामहि राम जपंतडां, काल घसीट्यां जाइ।। ८।।
कितने ही ज्ञानाभिमानी तीर्थों में जा-जाकर और डुबकियां लगा- लगाकर मर गये। जीभ से रामनाम का कोरा जप करनेवालों को काल घसीटकर ले गया।
'कबीर' इस संसार कौं, समझाऊं कै बार।
पूंछ जो पकड़ै भेड़ की, उतरया चाहै पार।। 9।।
कबीर कहते हैं- कितनी बार समझाऊं मैं इस बावली दुनिया को! भेड़ की पूंछ पकड़कर पार उतरना चाहते हैं ये लोग! (अंध-रूढ़ियों में पड़कर धर्म का रहस्य समझना चाहते हैं ये लोग!)
'कबीर' मन फूल्या फिरैं, करता हूं मैं धंम।
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम।। 10।।
कबीर कहते हैं- फूला नहीं समा रहा है वह कि 'मैं धर्म करता हूं, धर्म पर चलता हूं। चेत नहीं रहा कि अपने इस भ्रम को देख ले कि धर्म कहां है, जबकि करोड़ों कर्मों का बोझ ढोये चला जा रहा है!
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