ई-पुस्तकें >> कबीरदास की साखियां कबीरदास की साखियांवियोगी हरि
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जीवन के कठिन-से-कठिन रहस्यों को उन्होंने बहुत ही सरल-सुबोध शब्दों में खोलकर रख दिया। उनकी साखियों को आज भी पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है, मानो कबीर हमारे बीच मौजूद हैं।
गुरुदेव का अंग
राम-नाम कै पटंतरै, देबे कौं कछु नाहिं।
क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन मांहि।। 1।।
सद्गुरु ने मुझे राम का नाम पकड़ा दिया है। मेरे पास ऐसा क्या है उस सममोल का, जो गुरु को दूँ? क्या लेकर सन्तोष करूं उनका? मन की अभिलाषा मन में ही रह गयी कि, क्या दक्षिणा चढाऊं? वैसी वस्तु कहां से लाऊं?
सतगुरु लई कमांण करि, बाहण लागा तीर।
एक जु बाह्या प्रीति सूं, भीतरि रह्या शरीर।। 2।।
सद्गुरु ने कमान हाथ में ले ली, और शब्द के तीर, वे लगे चलाने। एक तीर तो बड़ी प्रीति से ऐसा चला दिया लक्ष्य बनाकर कि मेरे भीतर ही वह बिंध गया, बाहर निकलने का नहीं अब।
सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार।.
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत-दिखावणहार।। 3।।
अन्त नहीं सद्गुरु की महिमा का, और अन्त नहीं उनके किये उपकारों का, मेरे अनन्त लोचन खोल दिये, जिनसे निरन्तर मैं अनन्त को देख रहा हूं। (अर्जुन को भगवान् ने ऐसी ही तो दिव्य दृष्टि दी थी कि जिसे पाकर उसने विश्वरूप विराट की अनन्तता देखी थी।)
बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंह्मड़ी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार।। 4।।
हर दिन कितनी बार न्यौछावर करूं अपने आपको सद्गुरु पर, जिन्होंने एक पल में ही मुझे मनुष्य से परमदेवता बना दिया, और तदाकार हो गया मैं।
गुर गोविंद दोऊ खड़े, किसके लागूं पांय।
बलिहारी गुरु आपणे, जिन गोविन्द दिया दिखाय।। 5।।
गुरु और गोविन्द दोनों ही सामने खड़े हैं, दुविधा में पड़ गया हूं कि किसके पैर पकडूं! सद्गुरु पर न्यौछावर होता हूं कि, जिसने गोविन्द को सामने खड़ा कर दिया, गोविन्द से मिला दिया।
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