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कबीरदास की साखियां

वियोगी हरि

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :91
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9699

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जीवन के कठिन-से-कठिन रहस्यों को उन्होंने बहुत ही सरल-सुबोध शब्दों में खोलकर रख दिया। उनकी साखियों को आज भी पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है, मानो कबीर हमारे बीच मौजूद हैं।

ना गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव।
दुन्यूं बूड़े  धार  मैं,  चढ़ि  पाथर  की  नाव।। 6।।

लालच का दांव दोनों पर चल गया, न तो सच्चा गुरु मिला और न शिष्य ही जिज्ञासु बन पाया। पत्थर की नाव पर चढ़कर दोनों ही मझधार में डूब गये।

पीछैं लागा जाइ था, लोक बेद के साधि।
आगैं थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि।। 7।।

मैं भी औरों की ही तरह भटक रहा था, लोक-वेद की गलियों में। मार्ग में गुरु मिल गये सामने आते हुए और ज्ञान का दीपक पकड़ा दिया मेरे हाथ में। इस उजेले में भटकना अब कैसा?

'कबीर' सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष।
स्वांग जती का पहरि करि, घरि-घरि मांगै भीख।। 8।।

कबीर कहते हैं- उनकी सीख अधूरी ही रह गयी कि जिन्हें सद्गुरु नहीं मिला। संन्यासी का स्वांग रचकर, भेष बनाकर घर-घर भीख ही मांगते फिरते हैं वे।

सतगुर हम सूं रीझि करि, एक कह्या परसंग।
बरस्या बादल प्रेम का, भींजि गया सब अंग।। 9।।

एक दिन सद्गुरु हम पर ऐसे रीझे कि एक प्रसंग कह डाला, रस से भरा हुआ। और, प्रेम का बादल बरस उठा, अंग-अंग भीग गया उस वर्षा में।

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुर मिलै, तो भी सस्ता जान।। 10।।

यह शरीर तो विष की लता है, विषफल ही फलेंगे इसमें। और, गुरु तो अमृत की खान है। सिर चढ़ा देने पर भी सद्गुरु से भेंट हो जाय, तो भी सौदा यह सस्ता।

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