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कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700

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जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना


जिसे खोजता फिरता मैं इस हिमगिरी के अंचल में,
वहीं अभाव स्वर्ग बन हंसता इस जीवन चंचल में।

वर्तमान जीवन के सुख से योग जहां होता है,
छली-अदृष्ट अभाव बना क्यों वहीं प्रकट होता है।

किंतु सकल कृतियों की अपनी सीमा हैं हम ही तो,
पूरी हो कामना हमारी, विफल प्रयास नहीं तो!''

एक अचेतनता लाती सी सविनय श्रद्धा बोली,
''बचा जान यह भाव सृष्टि ने फिर से आंखें खोली!

भेद-बुद्धि निर्मम ममता की समझ, बची ही होगी.
प्रलय-पयोनिधि की लहरें भी लौट गयी ही होंगी।

अपने में सब कुछ भर कैसे व्यक्ति विकास करेगा,
यह एकांत स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा।

औरों को हंसते देखो मनु-हंसो और सुख पाओ,
अपने सुख को विस्तृत कर लो सबको सुखी बनाओ!

रचना-मूलक सृष्टि-यज्ञ यह यज्ञ-पुरुष का जो है
संसृति-सेवा भाग हमारा उसे विकसने को है!

सुख तो सीमित कर अपने में केवल दुख छोड़ने,
इतर प्राणियों की पीड़ा लख अपना मुंह मोड़ोगे,

ये मुद्रित कलियां दल में सब सौरभ बंदी कर लें,  
सरस न हों मकरंद बिंदु से खुल कर, तो ये मर लें-

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