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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


और उसने मुड़कर रेखा की सुनाई में आ सकने वाले विनय के स्वर में अपने साथी से पूछा, “क्यों मिस्टर चन्द्रमाधव, रेखाजी काफ़ी पीती हैं-हम लोग काफ़ी हाउस चलें?”

इस परोक्ष निमन्त्रण का उतना ही परोक्ष उत्तर देते हुए रेखा ने कहा, “हाँ, चन्द्र, तुम बहुत बार काफ़ी पिला चुके हो मुझे, आज मेरा निमन्त्रण रहा; और तुम्हारा मित्र भी आवे।”

चन्द्रमाधव ने कहा, “वाह, यह नहीं हो सकता, मैं तो स्थायी मेज़बान हूँ।”

तब भुवन ने कुछ साहस बटोर कर कहा, “रेखा देवी, अगर आज मुझे ही मेज़बान होने का गौरव प्रदान करें तो”

रेखा ने कुछ मुस्करा कर छद्म-विनय से कहा, “आप की प्रार्थना स्वीकार की जाती है।”

हज़रतगंज़ का कोना युक्तप्रान्त के नागरिक जीवन की धुरी है। यह दूसरी बात है कि जीवन वहाँ जिया नहीं जाता; वहाँ केवल जीवन से विश्रान्ति की व्यवस्था है। तथापि जो लोग उस जीवन का संचालन और नियमन करते रहे हैं उनका एक स्वाभाविक संगम वह कोना है। इसीलिए भुवन जब से लखनऊ आया है तब से रोज चन्द्र के साथ काफ़ी हाउस आता है : दिन में एक बार तो अवश्य, कभी-कभी दो-दो तीन-तीन बार और उस रूप-रस-गन्ध-सिक्त मानव-प्रवाह को किनारे से देखकर मन-ही-मन यह समझता चला जाता है कि वह भी जीवन के प्रवाह के बीच में है, कि जीवन का तीव्र स्पन्दन जिस नाड़ी में हो रहा है, उसे वह पकड़े है, और चाहे तो दबाकर रुद्ध भी कर दे सकता है!

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