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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


लखनऊ आये उसे कुल तीन दिन हुए हैं। चन्द्रमाधव उसका कालेज का सहपाठी और मित्र, स्थानीय 'पायनियर' का विशेष संवाददाता है और लखनऊ से परिचित है, यों भी बहुधन्धी आदमी है। उसके साथ रहने-घूमने से जीवन के प्रवाह को अनुशासित कर सकने का यह भ्रम सहज ही हो जा सकता है। इससे क्या कि कालेज के बाद से चन्द्रमाधव निरन्तर सनसनी की खोज़ में दौड़ा किया है-अफ्रीका, अबीसीनिया, इटली, जर्मनी, चीन, कोरिया-और वह चार-छः वर्ष वैज्ञानिक खोज़ और देशाटन में लगा कर, पहले से भी कुछ अधिक अन्तर्मुखी और तटस्थ होकर एक कस्बे के कालेज में लेक्चरर हो गया है जो कि यों ही दुनिया के प्रवाह से बहुत दूर रहता है? यह जीवन की धमनी को पकड़े रहने का भ्रम बड़ा ही लुभावना और अहं को पुष्ट करनेवाला है...

और इससे क्या कि चन्द्र का कहना है, वह जीवन के निरन्तर दबाव से बचकर दो मिनट चैन से बिताने के लिए ही काफ़ी हाउस आता है? शायद उसको वही भ्रम लुभा सकता हो...

और रेखा?

भुवन को याद आया, तीन दिन पहले चन्द्र के यहाँ उसने पहली बार रेखा को देखा था। परिचय के समय उसने लक्ष्य किया था कि रेखा के पास रूप भी है और बुद्धि भी है, किन्तु बुद्धि मानो तीव्र संवेदना के साथ गुँथी हुई है और रूप एक अदृश्य, अस्पृश्य कवच-सा पहने हुए है; पर इस आरम्भिक धारणा को उसने तूल नहीं दिया था। प्रचलित धारणा है कि बुद्धिजीवी स्त्री के आवेग शिथिल होते हैं, और अगर किसी को चट से 'फ्रिज्डि वूमन' का बिल्ला दे दिया जा सकता हो तो उसे लेकर माथा-पच्ची कौन करे? फलतः परिचय के साधारण शिष्टाचार के बाद भुवन अपने में खिंच गया था और रेखा चन्द्र के यहाँ जुटे हुए बुद्धिप्राण मानव-जीवनों के गिरोह में खो गयी थी-चन्द्र ने भुवन को मिलाने के लिए लखनऊ का साहित्यिक समाज इकट्ठा किया था...।

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