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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


बातचीत का सिलसिला टूट गया। तीनों चुपचाप काफ़ी पीते रहे।

चन्द्र के साथ तो भुवन टिका ही था; रेखा से भी उसके बाद प्रतिदिन भेंट होती रही। यों तो चन्द्र के नित्यप्रति काफ़ी हाउस जाने के प्रोग्राम में शामिल हो जाना ही काफी था। वहीं भेंट हो जाती थी और चन्द्र का विश्वास था कि अच्छे पत्रकार के लिए काफ़ी हाउस में घंटों बिताना आवश्यक है-'शहर में क्या हुआ है, क्या होने वाला है, क्या हो रहा है, सब काफ़ी हाउस का वातावरण सूँघ लेने से भाँप लिया जा सकता है।” भुवन अनुभव करता था कि दूसरे पत्रकार भी ऐसा मानते हैं, क्योंकि यहाँ प्रायः उनका जमाव रहता था और सब वहाँ ऐसे कर्म-रत भाव से निठल्ले बैठ कर, ऐसे अर्थ भरे भाव से व्यर्थ की बातें किया करते थे कि वह चकित हो जाता था। लेकिन पत्रकार साहित्यकार नहीं है, यह वह समझता था; साहित्यकार जो क्षणिक है उसमें से सनातन की छाप को, या जो सनातन है उसकी तात्क्षणिक प्रासंगिकता को खोज़ता और उससे उलझता है, पर पत्रकार के लिए क्षणिक की क्षणिक प्रासंगिकता ही सनातन है; और जहाँ वह उस प्रासंगिकता को तत्काल नहीं पहचानता वहाँ उसका आरोप करता चलता है...लेकिन बीच में एक दिन वह अकेला भी गया था। चन्द्र को किसी मन्त्री से आवश्यक भेंट के लिए काउन्सिल हाउस जाना था; दिन में अपने को सूना पाकर भुवन हज़रतगंज़ की ओर चल दिया था और एक पटरी पर चलते-चलते सहसा उसने देखा था, दूसरी पटरी पर दूसरी ओर से आती हुई रेखा सड़क पार करने के लिए ठिठक कर इधर-उधर देख रही है कि मोटरें न आ रही हों। वह रुक कर उसे देखने लगा था। रेखा ने बिना किनारे की सफ़ेद रेशमी साड़ी पहन रखी थी और वैसा ही ब्लाउज़, रेशम की सफ़ेदी में एक स्निग्धता होती है जैसे हाथी दाँत के रंग में, और उस पर रेखा का साँवला रंग बहुत भला लग रहा था। आभरण-अलंकार कोई नहीं था, केवल उसके एक ओर मुड़ने पर भुवन ने लक्ष्य किया था कि जुड़े में एक फूल है।

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