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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


चन्द्रमाधव उठ कर थोड़ी देर कमरे में टहलता रहा। टहलते-टहलते उसने एक बड़ा निश्चय किया। बोला, “रेखा जी, आप शायद मेरे बारे में बहुत कम जानती हैं। मैं अपनी जीवन-कहानी आप को सुनाना चाहता हूँ। सुनेंगी?”

रेखा ने झिझकते स्वर में कहा, “आप सुनाना चाहते हैं, तो ज़रूर सुनूँगी। पर कहानी जितनी अपने-आप कही जाये उतनी ही ठीक होती है। जो सुनायी जाती है, उस पर पीछे अनुताप भी हो सकता है और मैं नहीं चाहती कि आप ऐसा कुछ करें जिस से पीछे अनुताप हो - मेरे कारण ऐसा करेंगे तो मेरा बोझ।”

“नहीं, आप को सुनना होगा। क्योंकि आपने अभी जो बात मुझे कही, वह दुबारा कहें, ऐसा मौका मैं नहीं आने देना चाहता।”

जितनी देर चन्द्रमाधव बोलता रहा, रेखा एक शब्द नहीं बोली। न उसने चन्द्र की ओर देखा ही। बल्कि जब कहते-कहते चन्द्र का स्वर कुछ भर्रा आया, तब उसने नीरव पैरों से उठकर बड़े टेबल लैम्प का प्रकाश मन्द कर दिया, और फिर अपनी जगह आकर बैठ गयी। खिड़की के बाहर एक शेफाली का छोटा पेड़ था, उसकी ओर देखती रही।

चन्द्र चुप हो गया। रेखा तब भी नहीं बोली। देर तक दोनों चुप रहे। फिर चन्द्र ने धीरे से कहा, “रेखा जी।” उसका स्वर अभी आविष्ट था।

रेखा ने धीमे, किन्तु साफ और ठण्डे स्वर में पूछा, “यह सब आप मुझे क्यों बताते हैं?”

चन्द्र सहसा खड़ा हो गया। नये आवेश से बोला, “अब भी मुझसे यह पूछ सकती हो, रेखा! रेखा!”

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