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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


रेखा सहसा खड़ी हो गयी, यद्यपि अपने स्थान से हिली नहीं, न शेफाली की ओर से उसने मुँह फेरा। केवल उसका हाथ तनिक-सा मुड़ कर ऊँचा हो गया, उँगलियों में एक हल्का-सा निषेध या वर्जना का भाव आ गया।

चन्द्र ने फिर कहा, “तुम कैसे यह पूछ सकती हो, रेखा!” एक अधूरा कदम उसने रेखा की ओर बढ़ाया, पर ठिठक गया; रेखा की विमुख निष्कम्प देह-वल्ली को उसने एक बार सिर से पैर तक देखा, फिर उसके उस मुड़े हुए हाथ को; फिर बोला, “रेखा! रेखा देवी! मुझे क्षमा कीजिए रेखा देवी।” और जल्दी से बाहर चला गया।

लौट कर उसने एक क्षमा-याचना का पत्र भी लिखा। दो-तीन दिन बाद ही रेखा का उत्तर आया, उसमें सारी घटना का कोई उल्लेख ही नहीं था - यही लिखा था कि चन्द्रमाधव को बार-बार वहाँ आने में कष्ट होता है, अब की बार वही मिलने आवेगी। उसके ठहरने के लिए चन्द्र को कष्ट नहीं करना होगा, रियासतवालों का एक गेस्ट हाउस लखनऊ में है और वहीं उसे ठहरने की अनुमति मिल गयी है। बच्चे रानी के साथ ननिहाल जा रहे हैं अतः उसे कुछ दिन की छुट्टी है।

3


भुवन से जब रेखा की भेंट हुई, उससे पहले भी एकाधिक बार रेखा लखनऊ आकर रह गयी थी। अक्सर वह रियासत के गेस्ट हाउस में ही रहती थी, एक-आध बार लड़कियों के कालेज के होस्टल में भी किसी परिचिता के पास रह गयी थी। चन्द्रमाधव से वह बराबर मिलती, पर अपने ठिकाने पर उसे कभी नहीं ले गयी थी; चन्द्र पहुँचाने जाता तो फाटक पर ही उसे विदा करके भीतर चली जाती। एक बार चन्द्र ने कहा भी था, “आप अपने पास किसी को आने नहीं देती, जैसे।”

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