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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


पीछे किसी ने चिड़चिड़े स्वर में कहा, “अजी साहब, फुटबोर्ड पर क्यों लटके खड़े हैं, भीतर चले आइए और दरवाज़ा बन्द कर दीजिए।”

चिड़चिड़ापन वाज़िब था; क्योंकि इण्टर क्लास ही सही, रात को सोते सब हैं, और तड़के तीन बजे दरवाज़ा खोल कर खड़े हो जाना दूसरे मुसाफ़िरों को न सुहाए तो अचम्भा नहीं होना चाहिए।

भुवन ने भीतर प्रवेश करके दरवाज़ा बन्द किया और एक सीट पर सिमट कर बैठ गया। उसके विस्मय की जड़ता कुछ कम हुई तो उसकी स्मृति धीरे-धीरे पिछले कुछ घंटों की दृश्यावली के पन्ने उलटने लगी।

रेखा से उसका परिचय लम्बा नहीं था। बल्कि परिचय कहलाने लायक भी नहीं था, क्योंकि एक सप्ताह पहले ही अपने मित्र चन्द्रमाधव के घर पर एक छोटी चाय-पार्टी में इनकी पहली भेंट हुई थी। और उसके बाद दो-तीन बार हज़रतगंज़ के कोने पर या काफ़ी हाउस में, उनका कुछ वार्तालाप हुआ था। भुवन को लखनऊ से इलाहाबाद जाना था, रेखा किसी परिचित परिवार के पास कुछ दिन बिताने प्रतापगढ़ जाने वाली थी; बातचीत के सिलसिले में यह जान कर कि दोनों एक ही दिन एक ही गाड़ी से जा रहे हैं, चन्द्रमाधव की सलाह से यह निश्चय हुआ था कि तीनों साथ हज़रतगंज़ में कहीं भोजन करके स्टेशन पहुँच जावेंगे और दोनों को गाड़ी पर सवार कराकर चन्द्रमाधव लौट जायेगा। भुवन का सामान तो चन्द्रमाधव का नौकर ले जायेगा, और रेखा का सामान उनके आतिथेय का चपरासी पहुँचा आयेगा।

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