ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
यह तो बिलकुल साधारण बात थी। लेकिन गाड़ी में भीड़ बहुत थी; पहले यह सोचा गया कि दोनों अलग-अलग स्थान खोजें, क्योंकि शायद ज़नाने डिब्बे में कुछ अधिक जगह हो तो रेखा क्यों अधिक कष्ट उठाए? चन्द्रमाधव उसे बिठाने ज़नाने डिब्बे की ओर गया और भुवन अपने लिए स्थान खोजने निकला। कोई पन्द्रह मिनट में, अनेक डिब्बों का मुआइना करके आँखों-आँखों से प्रत्येक में मिल सकनेवाली जगह के घन इंच और वर्ग इंच का हिसाब लगाने के बाद जब भुवन ने एक डिब्बे में खिड़की के रास्ते अपना छोटा-सा बक्स और संक्षिप्त बिस्तर अन्दर ठेल दिया और तय कर लिया कि किवाड़ के आगे लगे सामान के ढेर के कारण उधर से न जा सकने पर भी खिड़की के रास्ते घुस सकेगा, वह यह देखने लौटा कि रेखा पर कैसी बीत रही है। मन-ही-मन उसने यह भी सोचा, इसी गाड़ी में जाना ऐसा क्या ज़रूरी है? एक दिन देर भी हो सकती है। इलाहाबाद पहुँचना कोई ऐसा ज़रूरी तो है नहीं, मुफ़्त में तकलीफ़ का सफर क्यों? क्यों न कल पर टाल दिया जाए? यही सोचते-सोचते वह वहाँ पहुँचा जहाँ चन्द्रमाधव एक खिड़की के पास खड़ा था। रेखा डिब्बे के भीतर तो पहुँच गयी थी, पर डिब्बा अपना यह देसी नाम इतना सार्थक कर रहा था कि जहाँ वह खड़ी थी वहाँ उसे इधर-उधर मुड़ने लायक भी स्थान नहीं था; वह खड़ी थी तो बस, जैसे खड़ी थी वैसे खड़ी रह सकती थी।
भुवन ने मुस्कराते हुए पुकार कर अंग्रेजी में पूछा, “रेखा जी, कैसा चल रहा है?”
रेखा ने ज़रा गर्दन उसकी ओर मोड़ कर, हँसते हुए कहा, “स्विमिंग्ली! मैं जैसे सागर की मछली हूँ; जमीन से पैर उठा लूँ तो भी गिरूँगी नहीं, तैरती रह जाऊँगी!”
भुवन ने चन्द्रमाधव से कहा, “चन्द्र, रेखा जी का इसी गाड़ी से जाना क्या ऐसा ज़रूरी?”
चन्द्र ने फौरन शह लेते हुए आवाज दी, “रेखाजी, अब भी सोच लीजिए, आज जाना क्या ज़रूरी है? मेरा कल के शो का निमन्त्रण अभी ज्यों-का-त्यों है। अब भी लौट चलिए, कल रात चली जाइएगा।”
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