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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

'ओह... आनंद - आओ...' रायसाहब ने चौंकते हुए कहा और कुर्सी से उठकर उसकी ओर बढ़े। आनंद लंबे-लंबे डग भरता उनके पास आ गया और कनखियों से संध्या को देखने लगा जो अचानक उसे देख मुँह फेरकर खड़ी हो चुकी थी।

'कहिए... सब ठीक तो है..' आनंद ने कुर्सी पर बैठते हुए पूछा।

किसी के उत्तर न देने पर आनंद ने अपने वाक्यों को दोहराया।

'आनंद! मैं अभी तुम्हारे यहाँ ही जा रहा था।' रायसाहब ने मौन भंग किया।

'कहिए - मैं स्वयं आ गया।

'संध्या अभी-अभी आई है।'

'जी...वह मैं देख रहा हूँ।'

'और निर्णय चाहती है।'

'निर्णय?' वह तनिक घबरा गया, पर संभलते हुए बोला-'कैसा निर्णय?'

'अपने जीवन का.. यह तो तुम जानते ही हो कि वह मेरी लड़की नहीं-’

'तो क्या हुआ। मेरा निश्चय अटल है और फिर भी यदि वह ऐसी बातें सोचे तो उसकी भूल है.. आपने तो उसे अपनी लड़कियों से कम नहीं चाहा। वह कौन-सी वस्तु है जो आपने उसे नहीं दी।'

'हाँ आनंद! सब ठीक है परंतु जो मूर्खता बेला से हुई उसका संध्या को भी बुरा नहीं मानना चाहिए। आखिर वह अनजान है, उसकी छोटी बहन यदि यह भेद जानने पर उसने किसी से कह भी दिया तो इसे बड़ी होने के नाते उसे क्षमा कर देना चाहिए।'

'तो क्या दोनों में कोई झगड़ा हुआ है?'

'यह तो इसी से पूछो - जाने दोनों में क्या-क्या बातें हुईं - यदि इससे कहूँ तो बिगड़ती है, उससे कहूँ तो घर सिर पर उठा लेती है - दो दिन से निशा के घर पर पड़ी है - यह भी कोई अच्छी बात है - सुनने वाले क्या कहेंगे-’ मालकिन बीच में बोलीं।

'हँसेंगे - रायसाहब का उपहास करेंगे कि उसका बोझ उठाने से घबराते हैं-’ रायसाहब ने चिंतित स्वर में कहा।

'तो आप सब मिलकर इस कथा को समाप्त ही क्यों नहीं कर देते', संध्या मुँह फेरकर चिल्लाई।

'क्या चाहती हो तुम?' आनंद ने धीमे स्वर में कहा।

'आपने उसे विवाह का वचन दिया है।'

'विवाह?' रायसाहब और मालकिन के मुँह से एक साथ निकला और वह आश्चर्य से संध्या और आनंद को देखने लगे जो स्वयं यह शब्द सुनकर तनिक कांप गया था। आनंद ने अपनी घबराहट को शीघ्र ही मुस्कराहट में बदलते हुए कहा-

'बस, इतनी-सी बात-अभी निर्णय किए देता हूँ। रायसाहब किसी पंडित को बुलवाइए-’

'किसलिए?'

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