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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

'मुहूर्त निकलवाइए - मैं संध्या से शीघ्र ब्याह करना चाहता हूँ।'

संध्या यह सुनते ही सकुचा गई और फिर मुँह फेरकर दीवार की ओर देखने लगी। रायसाहब और मालकिन हँसने लगे।

'यह भी गुड़िया की लगन है - जो-’ वह हँसी रोकते हुए वाक्य पूरा भी न कर पाए कि आनंद ने बीच में टोक दिया-

'आज्ञा हो तो जरा बेला से मिल आऊँ।'

'यह भी कोई पूछने की बात है - जाओ उसे भी मना लाओ - ऐसी बिगड़े-दिल साली भी भाग्य से मिलती है।' रायसाहब ने उत्तर दिया और मालकिन की ओर देखकर मुस्कराने लगे।

आनंद लपककर सीढ़ियाँ चढ़कर बेला के कमरे की ओर बढ़ा। बेला निढाल बिस्तर पर लेटी हुई थी। आहट पाते ही उसने गर्दन उठाई और आनंद को देखकर अपनी बिखरी दशा ठीक करने लगी। उसकी आँखों में क्रोध झलक रहा था। इससे पहले कि वह कुछ कहती - आनंद ने द्वार बंद कर लिया और बोला-

'कहो बेला - तुम्हारा क्या निर्णय है।'

'निर्णय - कैसा निर्णय?' उसने असावधानी से पूछा।

'आज ही निर्णय का दिन है और नीचे सब मेरे शब्द सुनने को व्याकुल हैं।'

'मैं नहीं समझी - यह सब'

'तो समझ लो - मैं संध्या से विवाह कर रहा हूँ।'

यह सुनते ही आवेश में वह कांपने लगी, मानों किसी ने उसके सीने में विष-भरा तीर चुभो दिया हो।

'आप बहुत शीघ्र अपने निर्णय बदलते हैं।'

'किंतु यह मेरा अंतिम निर्णय है - अब इसे कोई बदल नहीं सकता।'

'आपकी हर बात अंतिम होती है - कान के कच्चे जो हैं - जिसने भड़का दिया उसी के हो गए।'

'किंतु अब तुम्हारी कोई चाल नहीं चलेगी - मैं यह न जानता था कि तुम आग पर तेल डालना चाहती हो।'

'और मैं यह जानती थी कि उसका प्रेम धोखा है।'

'कैसा प्रेम - कैसा धोखा - तुम जबरदस्ती मेरे गले में आ पड़ी तो मैं क्या करूँ?'

'अब यों ही कहोगे - धोखा देने के पश्चात् सब यों ही कहते हैं।'

'धोखा मैंने दिया या तुमने - बलपूर्वक मेरी अतिथि बन बैठीं। अपने हाव-भाव से मुझे अपनी ओर खींचा और मेरी निर्बलता से लाभ उठाने के लिए तस्वीर के रूप में हमारे मिलने के प्रमाण रख लिए - तुमने समझा कि इन चालों से तुम मेरे प्रेम को जीत सकोगी - परंतु यह असंभव है - तुम जैसी कपटी मेरे मन में घर नहीं कर सकतीं - कभी नहीं।'

'नहीं - ऐसा मत कहो आनंद - प्रेम में मानव क्या नहीं करता।' वह आँखों में आँसू लाकर बोली।

'प्रेम में मानव सब कुछ करता 'है - कभी-कभी निराश होकर विष खाकर आत्महत्या भी कर लेता है।'

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