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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

‘मैं तो नहीं, वैसे है यह कुछ ऐसी वस्तु ! कुछ व्यक्ति तो इसे स्वर्ण-जल भी बोलते हैं।’

‘तो जाइए, छली कहीं के।’ संध्या मुँह फेरते हुए बोली।

‘बस, बिगड़ने लगीं-यदि बात बातपर यूँ बिगड़ोगी तो जीवन क्योंकर कटेगा ?’

‘रोते-चिल्लाते और तभी मार-पिटाई में भी।’ संध्या ने इसी मुद्रा में उत्तर दिया।

‘तब तो खूब कटेगी, घर में रेडियो की आवश्यकता न होगी। रेडियो तो एक ओर, रसोईघर में बर्तन भी साथ देंगे।’

‘अति सुंदर! पड़ोसी सिनेमा तक जाना छोड़ देंगे और हमारी आय बढ़ेगी।’

‘क्या इस नाटक पर टिकट लगेगा ?’

‘क्यों नहीं...किसी के बाबा के नौकर हैं, जो दिन-रात खेल हम मुफ़्त दिखायेंगे।’

‘‘बाबा के नौकर ! धंधा तो इतना पसार रहे हो पर हम दोनों करेंगे क्या क्या ?’

‘सच ही है स्त्रियों की बुद्धि चुटिया में होती है। वह जो चार-छह नन्हें-मुन्ने होंगे वे किस काम आएँगे ?’

यह सुनते ही संध्या खिलखिलाकर हँस पड़ी और उसके साथ ही आनंद भी। बातों-बातों में दोनों कहाँ पहुँच गए थे। इन बातों में उन्हें कितना आनंद मिल रहा था।

‘संध्या !’ आनंद ने उसके कंधे को धीरे से छूते हुए कहा।

‘हूँ।’

‘यदि आज तुम हँस न देतीं तो मैं हारने वाला न था।’

‘वह तो अच्छा रहा-जीत मेरी रही, देखिए ! वह क्या है ?’

‘नीलकंठ-बहुत सुंदर पक्षी है-क्या वह इस पेड़ से उड़ा है ?

'जी... न जाने यहाँ कब से बैठा हमारी बातें सुन रहा था।'

'तो क्या हुआ-मूक पक्षी किसी-से कहेगा थोड़े ही।'

'संसार वालों से तो नहीं परंतु इन्द्रलोक में हमारे प्रेम की चर्चा तो अवश्य

करेगा।'

'संध्या! एक बात कहूँ।'

'कहिए-'

'आज से हम अपने प्रेम को 'नीलकंठ' की संज्ञा देते हैं।'

'और हाँ-जीवन में हमने यदि कभी कोई मकान बनाया तो उसका नाम भी नीलकंठ ही रखेंगे।'

'तो अब स्त्रियों की बुद्धि भी दूर तक सोचने लगी' और फिर दोनों हँस पड़े।

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