लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ

नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

375 पाठक हैं

गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

दोनों की दृष्टि समुद्र की तरंगों पर पड़ी जो अब शांत हो चुकी थीं और दूर किसी मछेरे का आशा-भरा गीत सुन रही थीं, जो तट की ओर नाव खेता बढ़ा आ रहा था। संध्या आनंद का सहारा लेकर उठी और दोनों आकर गाड़ी में बैठ गए।

संध्या जब घर पहुँची तो अंधेरा हो चुका था। वह भीगी बिल्ली के समान दबे पांव सबकी दृष्टि से बचती अपने कमरे की ओर बढ़ी। जैसे ही उसने किवाड़ खोलने को हाथ बढ़ाया, किसी का स्वर सुनकर वह कांप गई। वह मालकिन थी जो इतनी देर से आने का कारण पूछ रही थी।

'मम्मी, जरा निशा के घर देरी हो गई।' संध्या ने धीमे स्वर में उत्तर दिया। 'तुम तो भीग रही हो। क्या बाहर वर्षा हो रही है?'

'हाँ मम्मी, मार्ग में इतनी जोर की वर्षा आ गई कि-’ पर मम्मी को मुस्कुराते देखकर वह चुप हो गई।

'जान पड़ता है कि आज मेरी बिटिया झूठ बोल रही है।'

'तो मैंने कब कहा यह सब सच है।'

संध्या की बात सुन मालकिन की हँसी छूट गई। उसे देखकर संध्या भी हँस पड़ी और अपनी बाहें उनके गले में डालकर बोली-

'माँ, मेरी अच्छी माँ! तू बुरा तो नहीं मान गई। आज आनंद बाबू के संग गई थी समुद्र तट पर। वह हठपूर्वक मुझे संग ले गए थे। मैं तो चलकर ही जा रही थी, परंतु उन्होंने नई कार का पट खोल दिया-अब ऐसे में करती भी क्या मैं, मम्मी!' संध्या कहते-कहते मौन हो गई। उसने देखा मम्मी उसकी बातों से अधिक उसके चेहरे को ध्यानपूर्वक देख रही है। संध्या लजाकर अलग हो गई और बोली- 'मैं मूर्ख भी जाने क्या बके जा रही हूँ।'

'अच्छा जा अब। शीघ्र कपड़े बदल ले, कहीं सर्दी न लग जाए।'

'अच्छा मम्मी, पापा से तो-’ संध्या ने प्रार्थना पूर्वक दृष्टि से देखते हुए कहा।

'हाँ हाँ, कुछ न कहूँगी। पर अभी से इतना मेल-जोल रखना उचित नहीं।' संध्या ने स्वीकारात्मक ढंग से सिर हिलाया और भीतर चली गई। द्वार बंद करते ही उसने मम्मी की आहट सुनने के लिए कान द्वार पर लगा दिए और तत्पश्चात् चिटखनी चढ़ाकर सामने दर्पण में अपना रूप निहारने लगी।

बिखरे बाल, भीगे कपड़े, होंठों पर चंचल मुस्कान और आँखों में किसी से प्यार की लौ - क्या दशा हो रही थी - स्वयं वह लजा गई और झट दर्पण से मुख मोड़ उसने कपड़ों की अलमारी खोली। ज्यों ही उसने भीगी साड़ी शरीर से हटानी चाही किसी के स्वर ने उसे चौंका दिया।

'जरा बत्ती तो बंद कर ली होती।' यह रेनु थी जो एक ओर बैठी पढ़ रही थी। संध्या उसे देखते ही बोली-

'दुष्ट कहीं की - मेरे तो प्राण सुखा दिए तूने - मैं समझी न जाने कौन है।' संध्या को उसके भोलेपन पर हँसी आ गई और हाथ बढ़ाकर उसने बत्ती बुझा दी। चारों ओर अंधेरा छा गया। संध्या ने तौलिए से गीला शरीर पोंछते हुए कहा-रेनु!'

'हाँ दीदी!'

'यदि कोई तुम्हें इस अंधेरे में पढ़ने के लिए कहे तो क्या तुम पढ़ लोगी?' 'दीदी, तुम भी कैसी बातें करती हो, तुम ही कहो, तुम्हें कुछ दिखाई देता है क्या?'

'हाँ रेनु, कमरे की प्रत्येक वस्तु जैसे तुम्हारी पुस्तकें, मेज पर रखे फूल।' 'बस-बस, मैं समझ गई।'

'क्या?' संध्या ने ब्लाउज के बटन बंद करते हुए पूछा।

'तुम अवश्य किसी अन्य स्थान का प्रकाश चुरा लाई हो, जिससे यह सब तुम्हें दिखाई दे रहा है।'

'तुम ठीक कहती हो रेनु।' संध्या ने उजाला करते हुए कहा।

उजाला होते ही कमरा जगमगा उठा और रेनु संध्या की ओर देखती ही रह गई। उसकी दीदी रात्रि को काली साड़ी में यों दिखाई दे रही थी मानों बादलों में चांद। दोनों मौन भाव से एक-दूसरे को निहारने लगे।

मालकिन के स्वर ने दोनों की शांति भंग कर दी और दोनों बाहर जाने को बढ़ीं। कदाचित भोजन के लिए उनकी प्रतीक्षा हो रही थी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai