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परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708

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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।

3

चारुबाला की माँ मनोरमा को ताश खेलने का बड़ा शौक था। मगर मुश्किल यही थी कि खेलने का शौक जितना था, उतनी निपुणता न थी। मगर ललिता उनकी इस कमी को दूर कर देती थी। वह खेलने में बहुत निपुण थी। मनोरमा का ममेरा भाई गिरीन्द्र जबसे आया था तबसे, इधर कई दिन से, दोपहर भर लगातार ताश का खेल होता था। गिरीन्द्र एक तो मर्द था, उस पर खेलता भी अच्छा था। अतएव उसके मुकाबले में बैठकर खेलने के लिए मनोरमा को ललिता की अनिवार्य आवश्यकता होती थी।

नाटक देखने जाने के दूसरे दिन ललिता को ठीक समय पर उपस्थित न देखकर मनोरमा ने बुला लाने के लिए अपनी दासी भेजी। उस समय ललिता बैठी हुई एक मोटी सी सादी कापी में किसी अँगरेज्री-पुस्तक का बँगला में तर्जुमा लिख रही थी- नहीं गई।

ललिता की सहेली चारु भी आकर कुछ न कर पाई। तब मनोरमा ने खुद जाकर पोथी-कापी आदि सब झड़ाके से उधर फेंकते हुए कहा- ले, उठ, चल जल्दी। परीक्षा पास करके तुझे जजी नहीं करनी होगी-बल्कि ताश ही खेलने पड़ेंगे- चल।

ललिता असमंजस में पड़ गई। रुआसी सी होकर उसने अपनी असमर्थता जताई। कहा-आज किसी तरह जाना न होगा, कल आने का पक्का वादा रहा। मगर मनोरमा ने एक न सुनी। अन्त को यह हुआ कि मामी से कहकर जबरदस्ती: हाथ पकड़कर उठाया, तब लाचार होकर ललिता गई। नियमानुसार आज भी ललिता को गिरीन्द्र के विपक्ष में बैठकर ताश खेलना पड़ा। लेकिन आज खेल नहीं जमा। वह किसी तरह उधर मन न लगा सकी। ललिता खेलते समय आदि से अन्त तक उदास और उचाट बनी रही और दिन ढलने के पहले ही उठ खड़ी हुई। जाते समय गिरीन्द्र ने कहा- आपने कल रात को रुपये तो भेज दिये, मगर गईं नहीं। चलिए, कल फिर चलें।

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