ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
“नहीं बिल्कुल नहीं,” वह उसे जबर्दस्ती बाहर ले आया।
कमरे में माणिक बोतल खोलकर गर्व से बोला, “खून करके अगर फांसी पर भी चढ़ना पड़े तो भी अच्छा है। मैं जेल या फांसी किसी से भी नहीं डरता।”
अपूर्व अग्निपिंड की तरह दहक उठा, “हरामजादा, पाजी, लुच्चा, बदमाश-नरककुंड बना रखा है। यहां आपको कदम रखने में घृणा नहीं हुई?”
भारती बोली, “नहीं। इस नरककुंड का निर्माण इन लोगों ने नहीं किया।”
अपूर्व बोला, “इन्होंने नहीं तो क्या मैंने किया है। लड़की की बात सुनी? उसकी मां तीर्थयात्रा करने गई है। निर्लज्ज, बेहया, शैतान! फिर कभी यहां आइएगा तो अच्छा न होगा।”
भारती हंसकर बोली, “मैं म्लेच्छ हूं। मेरे यहां आने में क्या दोष है?”
अपूर्व क्रुद्ध होकर बोला, “दोष नहीं है? ईसाई के लिए क्या अपने समाज के प्रति कोई उत्तरदायित्व नहीं है?”
“मेरा कौन है जिसके प्रति उत्तरदायित्व दिखाऊं? किसके सिर में मेरे लिए पीड़ा होती है?”
“यह आपकी चालाकी है। घर लौट चलिए।”
“मुझे पांच जगह और जाना है। आपको अच्छा न लगता हो तो आप लौट जाइए।”
“यह कहने से ही क्या मैं आपको छोड़कर जा सकता हूं?”
“ऐसी बात है तो मेरे साथ चलिए। मुनष्य पर मनुष्य के अत्याचार आंखें खोलकर देखने चलिए। केवल छुआछूत फैलाकर, अपने आप साधु बनकर सोचते हैं कि पुण्य संचय करके एक दिन स्वर्ग जाएंगे, ऐसा सोचिएगा भी नहीं।”
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