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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


भारती बोली, “माणिक किस पर नाराज हो रहे हो? सुशीला दो दिन से पढ़ने क्यों नहीं गई?”

माणिक किसी तरह उठकर बैठ गया। पहचानकर बोला, “बहिन जी, आओ बैठो। सुशीला तुम्हारे स्कूल में कैसे जाए, बताओ। रसोई-पानी, बर्तन मांजने से लेकर लड़के को संभालने तक का काम। छाती फटी जा रही है बहिन जी। उस साले को अगर मार न डालूं तो मैं वैवर्त समाज से खारिज। बड़े साहब के पास ऐसी अर्जी भेजूंगा कि साले की नौकरी ही छूट जाएगी।”

भारती हंसकर बोली, “वही करना। और अगर कहो तो सुमित्रा दीदी से कहकर तुम्हारी अर्जी लिखवा दूंगी। लेकिन कल तो फायर मैदान में हमारी मीटिंग है। याद है न?”

तभी दस-ग्यारह वर्ष की एक लड़की आई। उसने शराब फर्श पर रखकर कहा, “घोड़ा मार्का शराब नहीं मिली, टोपी मार्का ले आई हूं। चार पैसे बाकी बचे हैं बाबूजी। रमिया ने शराब में धुत होकर मुझसे क्या कहा था, जानते हो?”

पिता ने रमिया का नाम लेकर एक भद्दी गाली दी।

भारती बोली, “वहां तुम मत जाना सुशीला। तुम्हारी मां कहां है?”

मां? मां परसों रात को ही यदु चाचा के साथ चली गई। लाईन के बाहर किराये के एक मकान में रहती है....।”

लड़की और भी कुछ कहने जा रही थी कि बाप गरजकर बोला, “रहने दूंगा? ब्याही औरत है, रखैल नहीं।” कहकर उसने नई बोतल की टोपी तोड़ डाली।

अचानक भारती की साड़ी का छोर खींचकर अपूर्व बोला, “चलिए यहां से।” इससे पहले उसने भारती को कभी छुआ तक नहीं था।

“थोड़ी देर और ठहरिए।”

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