ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
“आत्मरक्षा के लिए।”
“इसका लाइसेंस है?”
“नहीं।”
“अगर पुलिस पकड़ लेगी तो दोनों की ही आत्मरक्षा हो जाएगी। कितने साल की सजा मिलेगी, जानती हो?”
“नहीं, चलिए।”
अपूर्व बोला, “दुर्गा श्रीहरि! चलिए।”
लम्बा रास्ता चलकर, एक कारखाने के सामने पहुंचा वह लोग फाटक के कटे दरवाजे से निकलकर अंदर चले गए। अंदर कारीगरों और मजदूरों के रहने के लिए टूटे-फूटे काठ और टीनों की लम्बी बस्ती थी।
भारती बोली, “आज काम का दिन होता तो यहां मार-पीट खून-खराबा हो रहा होता।”
“यह तो छुट्टी के दिन की भीड़ से ही अनुभव कर रहा हूं।”
सामने एक मद्रासी महिला पर्दा खिसकाकर पाखाने जा रही थी। पर्दे की हालत देखकर अपूर्व लज्जा से लाल होकर बोला, “पथ के दावे करने हों तो कहीं और चलिए। मैं यहां खड़ा नहीं रह सकता।”
प्रत्युत्तर में भारती हंस पड़ी।
कई घरों को पार करके दोनों एक बंगाली मिस्त्री के घर में प्रवेश किये। उस आदमी की उम्र काफी हो चली है। कारखाने में पीतल ढालने का काम करता है। शराब पीकर, काठ के फर्श पर लेटा मुंह बिगाड़कर किसी को गालियां दे रहा था।
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