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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


“देकर तो आ रही हूं।”

“इसी को देना कहते हैं? उसके इस दुर्दिन में पाई-पैसे का हिसाब करके केवल चार आने देना उसका अपमान है।”

“आप कितना देने जा रहे थे?”

“कम-से-कम पांच रुपए।”

भारती जीभ काटकर बोली, “बाप-रे-बाप! सब चौपट हो जाता। बाप तो शराब पीकर बेहोश पड़ा रहता और लड़की, लड़के दोनों की मृत्यु हो जाती।”

“शराब पी लेता?”

“नहीं पीता? हाथ में इतना रुपया आ जाने पर शराब न पी जाए-ऐसा मनुष्य संसार में कौन है?”

“आपकी सभी बातें विचित्र हैं। बीमार बच्चे की दवा के रुपए से शराब खरीदकर पी ले-यह क्या सत्य हो सकता है?”

“नहीं तो दाता का हाथ पकड़कर दु:खी व्यक्ति को देने से रोकूं, क्या मैं इतनी नीच हूं?”

“इनकी मां नहीं है?”

“नहीं।”

“कहीं कोई रिश्तेदार भी नहीं है।”

भारती बोली, “होने पर भी कोई काम नहीं आता। दस-ग्यारह साल पहले पंचकौड़ी एक बार अपने गांव गया था। अपने किसी पड़ोसी की एक विधवा स्त्री को फुसलाकर यहां ले आया था। लड़का-लड़की उसी के हैं। दो वर्ष बीत रहे हैं गले में फांसी लगाकर इस संसार से मुक्त हो गई। यही पंचकौड़ी के परिवार का संक्षिप्त इतिहास है।”

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