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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


अपूर्व ने गहरी सांस लेकर कहा, “नरककुंड है।”

“इसमें तनिक भी संदेह नहीं, लेकिन कठिनाई तो यह है कि यह सभी हमारे भाई-बहिन हैं। रक्त का संबंध अस्वीकार कर देने से तो छुटकारा नहीं मिलेगा अपूर्व बाबू! ऊपर बैठकर जो सब कुछ देख रहे हैं वह कौड़ी-दाम जोड़-जोड़कर हिसाब करके ही छोड़ेंगे।”

अपूर्व ने गम्भीर होकर कहा, “लगता है कि यह असम्भव नहीं है।”

पलभर पहले पंचकौड़ी के कमरे में खड़े-खड़े जो विचार पैदा हुए थे बिजली के वेग के समान मन में दौड़ गए। बोला, “मैं भी मनुष्य हूं। मेरा भी कुछ-न-कुछ दायित्च है।”

भारती बोली, “पहले-पहले तो मैं भी नहीं देख पाती थी। क्रोध में आकर झगड़ा कर बैठती थी। लेकिन अब देख पा रहीं हूं कि इन सब अज्ञानी, दु:खी, दुर्बल मन और पीड़ित भाई-बहनों की गर्दन पर पाप का बोझ कौन लादता जा रहा है।”

पास वाले कमरे में एक उड़िया मिस्त्री रहता है। उसके पास वाले कमरे से बीच-बीच में तेज हंसी और कोलाहल की आवाजें आ रही थी। यह सब पंचकौड़ी के कमरे से भी सुनाई दे रहा था। वह दोनों उस कमरे में पहुंचे। भारती को वह लोग पहचानते थे। सभी ने उसकी अभ्यर्थना की। एक दौड़कर एक स्टूल और बेंत का एक मोढ़ा ले आया। दोनों बैठ गए। फर्श पर बैठे छह-सात आदमी और आठ-दस औरतें एक साथ शराब पी रहे थे। टूटा हारमोनियम और तबला बीच में रखा था। तरह-तरह के रंग और आकार की खाली बोतलें चारों ओर लुढ़की पड़ी थीं। एक बूढ़ी-सी औरत नशे में धुत पड़ी सो रही थी। उसे एक प्रकार से नंगी ही कहा जा सकता था। साठ से लेकर बीस-पच्चीस वर्ष तक के नौ उम्र स्त्री-पुरुष बैठे थे।

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