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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


आज रविवार है। पुरुषों का छुट्टी का दिन था। प्याज-लहसुन की तरकारी और सस्ती जर्मन शराब की अवर्णनीय दुर्गंध एक साथ मिलकर अपूर्व की नाक तक पहुंचते ही उसका जी मिचलाने लगा। एक कम उम्र की औरत के हाथ में शराब का गिलास था। शायद थोड़े दिन पहले ही घर छोड़कर आई है। बाएं हाथ से नाक बंद करके गिलास को मुंह में उड़ेलकर बार-बार थूकने लगी। एक आदमी ने झटपट उसके मुंह में तरकारी ठूंस दी। एक बंगाली स्त्री को शराब पीते देख अपूर्व स्तम्भित-सा हो गया। लेकिन उसने कनखी से देखा कि इतने भयंकर वीभत्य दृश्य से भी भारती के चेहरे पर किसी प्रकार के विकार का चिन्ह नहीं है। यह सब देखने-सुनने की जैसे वह अभ्यस्त हो गई हो। लेकिन पलभर के बाद घर के स्वामी के कहने पर जब ट्रमी ने गाना आरम्भ किया-”वह यमुना-वह यमुना-” और पास ही बैठे एक आदमी ने हारमोनियम उठाकर झूठ-मूठ ही जी जान से बजाना आरम्भ किया तब शायद इतना बोझ भारती के लिए असह्य हो उठा। घबराकर बोली, “मिस्त्री जी, कल हम लोगों की सभा है। शायद यह बात तुम भूले नहीं हो। वहां जाना तो चाहिए ही।”

“जरूर चाहिए बहिन जी,” कहकर कालाचंद ने गिलास में शराब डाल ली।

भारती ने कहा, “बचपन में तुमने पढ़ा होगा कि तिनके जोड़-जोड़कर रस्सी तैयार करने पर हाथी भी बांधा जा सकता है। एक न होने पर तुम लोग कभी कुछ न कर सकोगे। केवल तुम लोगों की भलाई के लिए सुमित्रा बहिन कितना परिश्रम कर रही हैं। बताओ तो।”

इस बात का सभी ने समर्थन किया। भारती ने कहा, “तुम लोगों के बिना क्या इतना बड़ा कारखाना एक दिन भी चल सकता है? तुम लोग ही तो उसके वास्तविक स्वामी हो। इतनी सीधी-सादी बात कालाचंद, तुम लोग न समझना चाहो तो कैसे काम चलेगा।”

सबने कहा, “यह बात बिल्कुल ठीक है। उन लोगों के न चलाने पर तो अंधेरा-ही-अंधेरा रह जाएगा।

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