ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
एक आदमी से मिलना था लेकिन उसके द्वार पर ताला लगा था। दोनों लौट पड़े। कालाचंद के मकान में शराबियों का तर्क-वितर्क अभी तक चल रहा था। लोग यह कहकर झगड़ रहे थे कि ईसाई लड़कियां कारखानें में हड़ताल करा देना चाहती हैं। हड़ताल में उन्हें बड़ा कष्ट होगा। उन लोगों को लाइन के घरों में नहीं आने देना चाहिए। कालाचंद मिस्त्री ने कहा वह मूर्ख नहीं है। वह उन लोगों की दौड़-धूप परख रहा है। एक सतर्क महिला ने सलाह दी कि बड़े साहब को पहले ही सावधान कर देना ठीक होगा।
वहां से भारती को जबर्दस्ती दूर ले जाकर अपूर्व तीखे स्वर में बोला, “इन लोगों की भलाई करोगी? हरामजादे, पाजी, बदमाश। पासवाले कमरे में दो बच्चे मर रहे हैं, उनकी ओर आंख उठाकर कोई नहीं देखता। इससे बढ़कर नरक और कहां है?”
भारती बोली, “आपको यह क्या हो गया है?”
“मुझे कुछ नहीं हुआ, लेकिन तुमने कुछ सुना है या नहीं?”
“यह तो पुरानी बातें हैं। रोजाना ही सुनती हूं।”
अपूर्व गरजकर बोला, “ऐसी कृतघ्नता! इन्हीं को तुम अपने दल में लाना चाहती हो। यूनियन बनाना चाहती हो? इनकी भलाई चाहती हो?”
भारती हलकी-सी हंसी के साथ बोली, “यह लोग भी तो हम लोगों में से ही हैं अपूर्व बाबू! इस छोटी-सी बात को भूलकर आप संकट में पड़ रहे हैं। और भलाई? भलाई तो डॉक्टर साहब की भी नहीं कि जा सकती अपूर्व बाबू!”
अपूर्व निरुत्तर हो गया।
दोनों चुपचाप फाटक पार करके घूमते हुए बड़ी सड़क पर पहुंच गए। बस्ती के छोर पर जहां से दलदल आरम्भ होती थी, वहीं तिमुहानी पर पहुंचकर भारती बोली, “अगर आप घर जाना चाहें तो शहर जाने के लिए यह दाईं ओर का रास्ता है।”
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