ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
भारती व्यग्र स्वर में बोल उठी, “लज्जा करने की कौन-सी बात है शशि बाबू? यह भूल क्या संसार में अकेले आपने ही की है? आपसे सौगुनी भूल क्या मैंने नहीं की? और उससे भी हजार गुनी भूल करके जो अभागिन चुपचाप चिरकाल के लिए इस देश को छोड़ने के लिए तैयार हुई है, उसे क्या डॉक्टर नहीं पहचानते?”
डॉक्टर ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। लेकिन भारती ने उसकी परवाह नहीं की। कहने लगी, “सांसारिक बुद्धि आप में कम है। मुझमें कम नहीं थी? सुमित्रा जीजी की बुद्धि की तो तुलना नहीं की जा सकती फिर भी वह किसी के काम न आ सकीं। वह पराजित हो गईं तुम्हारी बुद्धि के सामने जो चिरकाल से अजेय है। जिसके मार्ग को कभी बाधा नहीं मिली, वह जो तुम्हारे पाषाण द्वार पर पछाड़ खाकर चूर-चूर हो गया। अंदर जाने का जरा-सा मार्ग उसे नहीं मिला।”
डॉक्टर ने इस अभियोग का उत्तर नहीं दिया। केवल उसके चेहरे की ओर देखकर जरा-सा हंस पड़े।
भारती ने कहा, “शशि बाबू, मैंने आपके प्रति बड़ा अपराध किया है। उसके लिए क्षमा चाहती हूं.....!”
शशि समझ न सका। लेकिन कुंठित हो उठा।
भारती पल भर चुप रहकर कहने लगी, “एक दिन भैया से मैंने आपके बारे में कहा था - कोई भी स्त्री आपको कभी प्यार नहीं कर सकती। उस दिन मैंने आपको पहचाना नहीं था। आज ऐसा लग रहा है कि जिसने अपूर्व बाबू को प्यार किया था वह अगर आपको पा जाती तो धन्य हो जाती। सभी आपकी उपेक्षा करते आए हैं। केवल एक व्यक्ति ने नहीं की। और वह हैं यही डॉक्टर। मनुष्य को पहचानने में इनसे गलती नहीं होती। इसलिए उस दिन दु:खी होकर इन्होंने मुझसे कहा था, “काश, शशि किसी दूसरी स्त्री को प्यार करता। लेकिन तुम मुझसे यह कभी नहीं कह सके कि भारती, इतनी बड़ी गलती तुम मत करो। पुरुष के दो आदर्श-तुम दोनों मेरे सामने बैठे हो। आज मेरी अरुचि की कोई सीमा ही नहीं है।”
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