लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार

पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

286 पाठक हैं

हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


डॉक्टर ने पूछा, “अपूर्व ने क्या कहा शशि?”

भारती ने उत्तर दिया, “मां बीमार है। इलाज कराना जरूरी है। लेकिन रुपए पास नहीं हैं। लौटकर छिपे ढंग से गुलामी करने पर कोई जान नहीं सकेगा। डर है तलवलकर का, और ब्रजेन्द्र का। लेकिन उसके काका हैं पुलिस कर्मचारी। इसलिए कोई व्यवस्था अवश्य ही हो गई होगी। भैया, मुझे और तुम्हें भी शायद छुटकारा नहीं मिलेगा। क्षुद्र, लोभी, संकीर्ण हृदय, डरपोक, छि:....।”

डॉक्टर मुस्कराकर बोले, “सच्चा प्यार करने पर इस तरह बदनाम नहीं किया जा सकता। कवि, अब तुम्हारी बारी है। सरस्वती का स्मरण करके अब तुम भी नवतारा के गुणों का कीर्तन करना आरम्भ कर दो।”

“भैया, तुमने मेरा तिरस्कार किया?”

“शायद ऐसी ही बात हो।”

अभिमान, व्यथा और क्रोध से भारती का चेहरा लाल हो उठा। बोली, “तुम कभी मुझे ऐसी कटूक्ति न सुना सकोगे। तुमने क्या यह सोचा है कि सभी शशि बाबू की तरह मुंह बंद करके सह सकते हैं। तुम क्या जानते हो कि मनुष्य की क्या दशा हो जाती है।” उत्तेजित वेदना से उसका गला रुंधा गया। बोली, “वह लौट आए हैं। अब तुम मुझे यहां से किसी दूसरी जगह ले चलो भैया। मैं भी किस अभागे के चरणों में अपना सर्वस्व विसर्जित करके बैठी हुई हूं....” कहते-कहते वह फर्श पर माथा रखकर बच्चे की तरह रोने लगी।

डॉक्टर मुस्कराते हुए चुपचाप भोजन करने लगे। उनका निर्विकार भाव देखकर यह पता न चल सका कि इन सब प्रणय-उच्छवासों ने इनको लेशमात्र भी विचलित किया है। पांच-सात मिनट के बाद भारती उठकर पास वाले कमरे में चली गई और आंख-मुंह अच्छी तरह धो-पोंछकर यथास्थान आकर बैठ गई।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book