ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
सुमित्रा बोल उठी, “हां, ठीक यही है। यही इनका यथार्थ स्वरूप है। दया नहीं, ममता नहीं, धर्म नहीं - इस पत्थर की मूर्ति को मैं पहचानती हूं।”
सुमित्रा की बात पर भारती ने विश्वास कर लिया हो, ऐसी बात नहीं है। लेकिन सुनकर वह स्तब्ध हो गई।
डॉक्टर बोले, “तुम लोग कहा करती हो चरम सत्य, परम सत्य-और यह अर्थहीन, निष्फल शब्द तुम लोगों के लिए अत्यधिक मूल्यवान हैं। मूर्खों को भुलावे में डालने के लिए इससे बड़ा जादू-मंत्र और कोई नहीं है। तुम लोग सोचती हो कि झूठ को ही बनाना पड़ता है। सत्य शाश्वत, सनातन और अपौरुषेय है। यही झूठी बात है। झूठ की ही तरह सच को भी मानव जाति दिन-रात बनाती है। यह भी शाश्वत नहीं। इसका जन्म है, मृत्यु है। मैं झूठ नहीं बोलता, सत्य की सृष्टि करता हूं।”
यह परिहास नहीं, सव्यसाची के हृदय की उक्ति है, भारती सुनकर पीली पड़ गई अस्फुट स्वर में उसने पूछा, “भैया! क्या यही तुम्हारे पथ के दावेदार की नीति है?”
डॉक्टर ने उत्तर दिया, “भारती, 'पथ के दावेदार' मेरी तर्क शास्त्र की पाठशाला नहीं है। यह मेरी पथ पर चलने के अधिकार की शक्ति है। कौन, कब, किसे अज्ञात आवश्यकता के लिए नीति वाक्य की रचना कर गया - वही हो जाएगा पथ के दावेदारों के लिए सत्य? और इसके लिए जिसकी गर्दन फांसी की रस्सी से बंधी है, उसके हृदय का वाक्य हो जाएगा झूठ? तुम्हारा परम सत्य क्या है, मैं नहीं जानता। लेकिन परम मिथ्या यदि कहीं हो तो वह यही है।”
उत्तेजना से सुमित्रा की आंखें चमक उठीं। लेकिन इतनी भयानक बात सुनकर भारती आशंका से एकदम अभिभूत हो उठी।
“कवि।”
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