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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


इस अनोखी प्रार्थना का अर्थ न समझ पाने के कारण शशि और सुमित्रा दोनों ही आश्चर्यचकित होकर ताकते रह गए और उनकी आंखों पर नजर डालकर भारती ने अपनी व्याकुलता से स्वयं ही लज्जित हो उठी। यह लज्जा डॉक्टर की नजरों से छिपी न रह सकी। उन्होंने हंसते हुए कहा, “सच, झूठ और सफेद झूठ - एक में मिलाकर तो सभी बोलते हैं भारती। इसमें मेरा विशेष दोष क्या है? इसके अतिरिक्त यदि किसी के लिए यह बात लज्जा करने की हो तो वह मेरे ही लिए है। लेकिन लज्जित तुम हो रही हो।”

भारती मुंह झुकाए बैठी रही।

सुमित्रा ने इसका उत्तर देते हुए कहा, “लेकिन अगर डॉक्टर, तुम्हारे पास लज्जा हो ही नहीं - तब? लेकिन स्त्रियां तो मुंह पर सच बात भी स्पष्ट रूप से कहने में लज्जा का अनुभव करती हैं। कोई-कोई तो कह ही नहीं सकती।”

यह बात किसको लक्ष्य करके किसलिए कही गई, यह किसी से छिपी नहीं रही लेकिन जो श्रद्धा और सम्मान उनके लिए सहज प्राप्य मालूम होते हैं उन्होंने ही सबको निरुत्तर कर दिया।

दो-तीन मिनट इसी तरह चुपचाप बीत जाने पर डॉक्टर ने भारती की ओर देखते हुए कहा, “भारती, सुमित्रा ने कहा है कि मुझ में लज्जा नहीं है। तुमने यह आरोप लगाया है कि मैं सुविधानुसार सच-झूठ दोनों ही बोला करता हूं। आज भी उसी तरह कुछ कहकर इस प्रसंग को मैं समाप्त कर सकता था। यदि इसके साथ मेरे पथ के दावेदार का कोई संबंध न होता। इसकी भलाई-बुराई से ही मेरा सच-झूठ निर्धारित होता है। यही मेरा नीति शास्त्र है। यही मेरी अकपट मूर्ति है।”

भारती अवाक् होकर बोली, “यह क्या कहते हो भैया। यही तुम्हारी नीति है? यही तुम्हारी अकपट मूर्ति है?”

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