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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


अपूर्व कुछ कहना ही चाहता था लेकिन उससे पहले ही डॉक्टर तेजी से अंधेरे में विलीन हो गए।

सीढ़ियां चढ़कर अपूर्व भारती के कमरे में पहुंचा और अच्छी तरह देखकर एक आराम कुर्सी बिछाकर लेट गया।

कुछ देर बाद जब भारती ने ऊपर आकर तिपाई पर दीपक रखा तो अपूर्व को एकाएक लज्जा का अनुभव हुआ। यह कोई नई बात नहीं थी। इससे पहले भी उन दोनों ने एक कमरे में रात बिताई है, लेकिन आज यह लज्जा क्यों? वह मन-ही-मन इसका कारण खोजने लगा तो सहसा उसे तिवारी की याद आ गई। भारती ने उसे जगाने का प्रयास नहीं किया। लेकिन पुराने मकान के दरवाजे-खिडकियां बंद करने में जो खटपट की आवाज हुई, यह वास्तविक नींद के लिए अत्यंत विघ्नकारक थी। अपूर्व उठ बैठा। आंखें मलकर जंभाई लेते हुए बोला, “ओह, इतनी रात को फिर लौट आना पड़ा।”

“जाते समय यह बात बताकर क्यों नहीं गए? सरकार जी से कहकर आपके लिए भोजन मंगवाकर रख लेती?”

“लौट आने की बात क्या मैं जानता था?”

भारती ने सहज स्वर में कहा, “मुझसे ही भूल हुई। भोजन के बारे में उनसे उसी समय कह देना चाहिए था। इतनी रात गए यह बखेड़ा उठाने की नौबत न आती। इतनी देर तक आप लोग कहां बैठे रहे?”

“उन्हीं से पूछिए कि तीन कोस का मार्ग चलना, बैठकर समय बिताना कहलाता है या नहीं?”

भारती बोली, “गोरख धंधे में पड़ गए थे, यही न। फिर चलना ही सार निकला,” यह कहकर खड़े होने के बाद जरा हंसकर बोली, “संध्या आदि अब भी करते हैं या नहीं? कपड़ा दे रही हूं। इन कपड़ों को उतार दीजिए।” यह कहकर आंचल समेत चाबियों का गुच्छा हाथ में लेकर एक अलमारी खोलती हुई बोली, “बेचारा तिवारी घबरा जाएगा। लगता है ऑफिस से लौटने पर एक बार भी डेरे पर जाने का समय नहीं मिला।”

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