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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


डॉक्टर बोले, “सम्भव है... पकड़ लेने पर फांसी दे देंगे। लेकिन अब दस बजे की ट्रेन छूटने में देर नहीं है अपूर्व बाबू! मैं जा रहा हूं।” यह कहकर उन्होंने फीते से बंधे बहुत बड़े पुलिंदे को बड़ी आसानी से पीठ पर रखा और चमड़े का बैग हाथ में उठा लिया।

अभी तक भारती ने एक शब्द भी नहीं कहा था। बिना कुछ बोले पैरों में गिरकर प्रणाम कर लिया। सुमित्रा ने भी प्रणाम किया। लेकिन पैरों के पास नहीं एकदम पैरों के ऊपर गिरकर।

डॉक्टर ने कमरे के बाहर आकर अपूर्व के हाथ को पिछली रात की तरह अपनी मुट्ठी में भींचकर कहा, “मैं अब जा रहा हूं अपूर्व बाबू! - मैं ही सव्यसाची हूं।”

अपूर्व का चेहरा एकदम सूख गया। गले से एक शब्द भी नहीं निकला, लेकिन आंखों के पलकों के गिरते-गिरते उसके पैरों के पास स्त्रियों की तरह धरती पर गिरकर प्रणाम किया। डॉक्टर ने उसके सिर पर हाथ रखा और दूसरा हाथ भारती के सिर पर रखकर धीमे स्वर में क्या कहा सुनाई नहीं दिया। फिर वह तेजी से बाहर निकल गए।

भारती और अपूर्व दोनों ने पीछे की ओर के बंद दरवाजे की ओर मुड़कर देखा, लेकिन किसी ने कुछ कहा नहीं। दोनों चुपचाप होटल से बाहर आने लगे तो भारती ने कहा, “चलिए अपूर्व बाबू, हम लोग अपने कमरे में चलें।”

“लेकिन मेरा तो ऑफिस का समय....।”

“रविवार को भी ऑफिस?”

“रविवार?.... यह बात है?” अपूर्व प्रसन्न होकर बोला, “यह बात सवेरे याद आ जाती तो नहाने-खाने के लिए इतना घबराने की जरूरत ही न पड़ती। आपको इतनी बातें याद रहती हैं लेकिन इस बात को भूल गईं।”

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