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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


अपूर्व ने धीरे से कहा, “डॉक्टर साहब, आज आपका पहनावा कैसा है? क्या कहीं बाहर जा रहे हैं?”

डॉक्टर के सिर पर पगड़ी, बदन पर लम्बा कोट, ढीला पाजामा, पैरों में रावलपिंडी का नागौरी जूता। सामने चमड़े के बंधे कई गट्ठर थे। बोले, “मैं तो अब जा रहा हूं अपूर्व बाबू! यह सभी लोग.... रहेंगे। आपको देखभाल करनी होगी। इससे अधिक आपको कुछ कहना मुझे आवश्यक नहीं जान पड़ता।”

अपूर्व घबराकर बोला, “अचानक कैसे जा रहे हैं? कहां जाना है?”

डॉक्टर ने शांत स्वाभाविक स्वर में कहा, “हम लोगों के शब्दकोश में क्या 'अचानक' शब्द होता है अपूर्व बाबू? मामो के रास्ते में जाना है। उसके भी और उत्तर में। कुछ सच्ची जरी का माल है। सिपाही अच्छे दामों में खरीद लेते हैं।” यह कहकर वह हंस पड़े।”

सुमित्रा बोल उठी, “उन लोगों को पेशावर से एकदम हटाकर मामो लाया गया है। तुम जानते हो, उन लोगों पर कैसी बुरी निगरानी रहती है। तुमको बहुत से लोग पहचानते हैं। यह मत सोच लेना कि सबकी आंखों में धूल झोंक सकोगे। इधर कुछ दिनों तक न जाने से क्या काम नहीं चलेगा?”

अंतिम वाक्य कहते समय उसका स्वर कुछ विचित्र-सा सुनाई पड़ा।

डॉक्टर ने कहा, “तुम तो जानती ही हो कि न जाने से काम नहीं चलेगा।”

सुमित्रा ने फिर कुछ नहीं कहा। लेकिन क्षण भर में अपूर्व सारी घटना समझ गया। उसके समूचे शरीर में आग-सी जलने लगी। किसी प्रकार पूछ बैठा, “मान लीजिए, यदि उनमें से कोई पहचान ही ले, यदि पकड़ ले?”

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