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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


अपूर्व लज्जित होकर बोला, “सारा दोष तिवारी का ही है। लेकिन मां यह सुनकर आपको कितना आशीर्वाद देंगी, यह आप नहीं जानतीं?”

“कैसे जानूं? मां के आने पर उन्हीं के मुंह से तो सुन पाऊंगी।”

“मां आएंगी, इस बर्मा में? यह आप क्या कह रही हैं?”

भारती ने बल देकर कहा, “क्यों नहीं आएंगी। कितनों ही की मां आए दिन आ रही हैं। यहां आने से क्या किसी की जाति चली जाती है?”

अपूर्व जाकर आराम कुर्सी पर बैठ गया। भारती बोली, “भाभियां मां की अच्छी तरह सेवा नहीं करतीं। आपको बहुत दिनों तक विदेश में नौकरी करके रहना पड़े तो उनकी सेवा कौन करेगा?”

“मां कहती हैं, छोटी दुल्हन उनकी सेवा करेगी।”

भारती बोली, “अगर वह भी सेवा न करे तो? आप रहेंगे विदेश में, बड़ी बहुओं की देखा-देखी यदि वह भी उनकी तरह मां की सेवा न करके उन्हें कष्ट देने लगे तो क्या कीजिएगा?”

अपूर्व भयभीत होकर बोला, “ऐसा कभी नहीं हो सकता। कुलीन ब्राह्मण वंश से आकर किसी प्रकार भी वह मेरी मां को कष्ट नहीं देगी।

“कुलीन ब्राह्मण वंश.....” भारती मुस्कराकर बोली, “अब रहने दीजिए। अगर जरूरत पड़ी तो वह कहानी किसी दूसरे दिन आपको सुनाऊंगी। केवल मां की सेवा के लिए ही जिससे विवाह करके आप छोड़कर चले आएंगे, उसके प्रति क्या यह आपका अन्याय नहीं होगा?”

“अन्याय तो अवश्य होगा।”

“और इस अन्याय के बदले में आप स्वयं न्याय की अपेक्षा करेंगे?”

कुछ पल मौन रहकर अपूर्व बोला, “लेकिन इसके अतिरिक्त मेरे पास और उपाय ही क्या है भारती?”

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