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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


“उपाय नहीं भी और हो भी सकता है। लेकिन असम्भव बात की आशा आप बहुत बड़े कुलीन घर की बेटी से भी नहीं कर सकते। इसका परिणाम कभी शुभ नहीं होगा। आपकी निर्ममता के बदले में वह जितना ही अपना कर्त्तव्य-पालन करेगी आप उसके सामने उतने ही छोटे हो जाएंगे। पत्नी के सामने अश्रद्धेय होने की अपेक्षा बड़ा दुर्भाग्य संसार में कुछ और नहीं है।”

इस बार अपूर्व निरुत्तर-सा हो गया। मित्र-मंडली में शास्त्र के अनुसार नारी को आधुनिकता के विरुद्ध शास्त्र ग्रंथों से प्रमाण उद्धृत करके उन लोगों को स्तब्ध कर दिया है। लेकिन इस ईसाई लड़की के आगे उसका मुंह नहीं खुला। वह इतना ही कह सका, “कोई नहीं।”

भारती हंसकर बोली, “एकदम कोई नहीं, यह बात नहीं है। कुलीन घर की न होकर कहीं भी कोई हो सकती है जो आपके लिए अपने-आपको सम्पूर्ण रूप से समर्पित कर दे। लेकिन उसे आप खोज कहां पाएंगे?”

अपूर्व अपने आप में ही डूबा रहा। भारती की बात पर उसने ध्यान नहीं दिया। बोला, “यही तो बात है।”

भारती ने पूछा, “आप घर कब जाइएगा?”

“क्या पता, मां कब चिट्ठी भेजती है। बाबू जी के साथ मतभेद होने के कारण मां ने जीवन में कभी सुख नहीं पाया। उस मां को अकेली छोड़ आने के लिए मेरा मन कभी तैयार न होता।” फिर भारती की ओर देखकर बोला, “देखिए, बाहर से देखने में हम लोगों की अवस्था कितनी ही अच्छी क्यों न हो लेकिन भीतर से बहुत खराब है। भाभियां किसी भी दिन हम लोगों को अलग कर सकती हैं। वहां जाकर शायद फिर लौटकर न आ सकूं।”

भारती बोली, “आपको आना ही पडेग़ा।”

“मां को छोड़कर कब तक अलग रहूंगा?”

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