ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
“उन्हें सहमत करके साथ ले आइए। वह आएंगी।”
अपूर्व हंसकर बोला, “कभी नहीं। मां को आप नहीं जानतीं। अच्छा मान लो, वह आ जाएं, तो उनकी देख-भाल कौन करेगा?”
“मैं करूंगी!”
“आप करेंगी? आपके घर में कदम रखते ही मां बर्तन उठाकर फेंक देंगी।”
भारती बोली, “कितनी बार फेंक देंगी। मैं रोज कमरे में जाऊंगी।
दोनों हंस पड़े। भारती ने सहसा गम्भीर होकर कहा, “आप भी तो बर्तन फेंकने वालों के दल के ही हैं। लेकिन फेंक देने से ही सारा बखेड़ा समाप्त हो जाता तो संसार की सारी समस्याएं सुलझ जातीं। विश्वास न हो तो तिवारी से पूछ लीजिएगा।”
अपूर्व बोला, “यह तो सच है। वह बर्तन तो फेंक देगा लेकिन साथ ही उसकी आंखों से आंसू भी बहेंगे। आपके लिए उसके मन में अपार भक्ति है। थोड़ा-सा सिखाने-पढ़ाने से वह ईसाई भी बन सकता है।”
भारती बोली, “संसार में कब क्या हो जाए, कुछ नहीं कहा जा सकता, न नौकर के संबंध में और न...” यह कहकर उसने हंसी छिपाने के लिए मुंह नीचा किया तो अपूर्व का चेहरा लाल हो उठा। बोला, “पर यह तो निश्चित है कि नौकर और मालिक की बुद्धि में कुछ अंतर रह सकता है।”
भारती बोली, “अंतर तो है। इसीलिए मालिक के सहमत होने में देर हो सकती है।”
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