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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


लेकिन उसके बातें समाप्त होते-न-होते माने दक्ष यज्ञ आरम्भ हो गया। घोड़े दौड़ने लगे। चाबुक कसने लगे अपमानित, अभिभूत और अस्त-व्यस्त मजदूर जान बचाकर भाग खड़े हुए। कौन किस पर गिरा और कौन किसके पैरों के नीचे कुचल गया कोई ठिकाना नहीं रहा।”

कुछ घायल चोट खाए व्यक्तियों को छोड़कर सारा मैदान सूना होने में देर नहीं लगी। किसी तरह लंगड़ाते हुए जो लोग इस समय भी इधर-उधर भागे जा रहे थे स्तब्ध बैठी सुमित्रा उनकी ओर एकटक देख रही थी। उनसे कुछ ही दूरी पर अपूर्व बैठा था। एक और महिला इसी तरह सिर झुकाए विमूढ़-सी बैठी थी।

जो व्यक्ति गाड़ी लाने गया था, दस मिनट बाद गाड़ी लेकर आ गया। सुमित्रा भारती का हाथ पकड़कर धीरे-धीरे जाकर उसमें बैठ गई। आज वह बहुत अस्वस्थ, उत्पीड़ित और थकी हुई दिखाई दे रही थीं।

भारती ने कहा, “चलिए।”

अपूर्व ने अपना मुंह ऊपर उठाकर कुछ देर तक न जाने क्या सोचकर पूछा, “मुझे कहां चलने को कह रही हो?।”

भारती ने कहा, “मेरे घर।”

अपूर्व कुछ देर चुप रहा। फिर धीरे से बोला, “आप लोग तो जानती हैं कि मैं समिति के लिए कितना अयोग्य हूं। वहां मेरे लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।”

भारती ने पूछा, “तो फिर इस समय कहां जाएंगे, डेरे पर?”

“डेरे पर? एक बार जाना होगा, “इतना कहते ही अपूर्व की आंखें सजल हो उठीं। किसी तरह आंसुओं को संभालते हुए बोला, “लेकिन इस विदेश में और कहां जाऊं, समझ नहीं पा रहा भारती।”

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