ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
दूसरे दिन जब भारती की नींद टूटी, दिन चढ़ चुका था। लड़के दरवाजे के बाहर खड़े होकर पुकार रहे थे। झटपट हाथ-मुंह धोकर वह नीचे आ गई। दरवाजा खोलते ही कुछ छात्र-छात्राएं पुस्तकें-स्लेटें लिए अंदर आ गए। उन्हें बैठने को कहकर भारती कपड़े बदलने ऊपर जा रही थी कि तभी होटल के मालिक सरकार महाराज आ गए। बोले, “अपूर्व तुम को कल रात से ही....।”
भारती ने बात काटकर पूछा, “रात को आए थे?”
महाराज बोला, “आज भी सवेरे से बैठे हैं। भेज दूं?”
भारती का मुंह उतर गया। बोली, “मुझसे उन्हें क्या काम है?”
ब्राह्मण ने कहा, “वह तो मैं नहीं जानता बहिन जी। शायद उनकी मां बीमार हैं। उसी के संबंध में कुछ कहना चाहते हैं।”
भारती अप्रसन्नता से बोली, “मां बीमार हैं तो मैं क्या करूं?”
ब्राह्मण आश्चर्य में पड़ गया। अपूर्व बाबू को वह अच्छी तरह पहचानता था। वह सम्भ्रांत व्यक्ति हैं। पिछले दिनों इसी घर में उनके स्वागत-सत्कार की कोई कमी नहीं थी। लेकिन आज इस असंतोष भरे भाव का कारण वह नहीं समझ सका। बोला, “मैं जाकर उनको भेज देता हूं।”
यह कहकर वह जाने लगा तो भारती बोली, “इस समय लड़के-लड़कियां आ गए हैं। उनको पढ़ाना है। कह दो इस समय भेंट नहीं होगी।”
ब्राह्मण बोला, “फिर दोपहर या शाम को मिलने के लिए कह दूं?”
भारती बोली, “नहीं, मेरे पास समय नहीं है।”
इस प्रस्ताव को यहीं समाप्त करके वह ऊपर चली गई।
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