ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
स्नान करने के बाद तैयार होकर घंटे भर बाद वह जब नीचे उतरी तब तक लड़के-लड़कियों से कमरा भर गया था और उनके पढ़ने की आवाजों से सारा मुहल्ला गूंज उठा था। भारती पढ़ाने के लिए बैठी लेकिन मन नहीं लगा। पाठ देने में और सुनने में उसे आज केवल असफलता ही नहीं बल्कि आत्मवंचना-सी मालूम होने लगी और सभी भावनाओं के बीच-बीच में आकर लगातार बाधा पहुंचाने लगी अपूर्व की चिंता। उसे इस प्रकार लौटा देना अशोभनीय ही क्यों न हो, उसे प्रश्रय देना बहुत बुरा है। इस विषय में भारती के मन में किसी भी बहाने से भेंट करके वह पहले के अस्वाभाविक संबंध को और भी विकृत कर देना चाहता है। नहीं तो अगर मां बीमार है तो वह यहां बैठा क्या कर रहा है? मां तो उसकी है, भारती की तो है नहीं।
उनकी खतरनाक बीमारी का समाचार पहुंचाकर उनकी रोग-शय्या के पास पहुंचना पुत्र का प्रथम और प्रधान कर्त्तव्य है। यह विषय क्या दूसरे से परामर्श करके समझना होगा? उसे यह बात याद आ गई कि रोग के मामले में अपूर्व बहुत डरता है। उसका कोमल मन व्यथा से व्याकुल होकर बाहर से कितना ही क्यों न छटपटाता रहे, रोगी की सेवा करने की उसमें न तो शक्ति है न साहस। यह भार उस पर सौंप देने के समान सर्वनाश और नहीं है। भारती यह सब जानती थी। वह यह भी जानती थी कि अपनी मां को अपूर्व कितना प्यार करता है। मां के लिए वह जो न कर सके ऐसा कोई भी काम संसार में उसके लिए नहीं है।
उनके ही पास न जा सकने का अपूर्व को कितना दु:ख है। इसकी कल्पना करके एक ओर उसके मन में जिस प्रकार करुणा पैदा हुई दूसरी ओर इस असहनीय भीरुता से, क्रोध के मारे उसका सारा शरीर जलने लगा।
भारती ने मन-ही-मन कहा, “सेवा नहीं कर सकता तो क्या इसी कारण बीमार मां के पास जाने में कोई लाभ नहीं है? इसी उपदेश की क्या अपूर्व मुझसे प्रत्याशा करता है?”
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