ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
दासी बोली, “जाती हूं। नौकर तो उनके साथ चला गया था। अकेले सब धोना-मांजना-जो हो, लौटकर बीस रुपए मेरे हाथ में देकर बाबू रोकर बोले, 'दाई, अंत समय में तुमने जो किया, उतना मां की बेटी भी पास रहते हुए नहीं कर सकती थी।' वह रोने लगे तो मैं भी रोने लगी। बहिन जी, आह, कितना कष्ट उठाया। परदेश की भूमि, कोई अपना आदमी पास नहीं। समंदर का रास्ता, तार भेज देने से ही तो बहू-बेटे उड़कर आ नहीं सकते थे। उन लोगों का भी क्या दोष है।”
भारती का हृदय उद्वेग और अज्ञात आशंका से बर्फ-सा हो गया लेकिन मुंह खोलकर वह कुछ भी न पूछ सकी।
दासी कहने लगी, “महाराज जी ने बुलाकर कहा, 'बाबू की मां बहुत बीमार हैं, तुमको वहां जाना पड़ेगा ज्ञाना।' मैं तब नहीं, न कह सकी। एक तो निमोनिया की बीमारी, उस पर धर्मशाला की भीड़। जंगले-किवाड़ सब टूटे हुए। एक भी बंद नहीं होता था.....कैसा संकट। पांच बजने पर प्राण निकल गए। लेकिन मेस के बाबूओं को खबर देते, बुलाते-बुलाते शव उठा रात को दो-ढाई बजे। उनके लौटकर आने पर दिन चढ़ आया था। अकेली मुझे ही सब धोना-पोंछना....।”
भारती ने पूछा, “क्या अपूर्व बाबू की मां मर गई?”
दासी ने गर्दन हिलाकर कहा, “हां बहिन जी, मानो उनके लिए बर्मा में जमीन खरीद ली गई थी। वही जो एक कहावत है-'ताहि तहां ले जाए।' ठीक यही बात हुई। इधर से अपूर्व बाबू ने प्रस्थान किया, उधर वह भी लड़के से झगड़ा करके जहाज पर बैठ गईं। बस एक नौकर साथ था। जहाज ही में बुखार आ गया। धर्मशाला में उतरते ही एकदम बेहोशी छा गई। घर पहुंचते ही बाबू वापसी जहाज से लौट आए। यहां आकर उन्होंने देखा, मां जा रही है। वास्तव में चली ही गईं। लेकिन अब बातें करने का समय नहीं है बहिन जी, इसी समय सभी बाहर निकल पड़ेंगे। फिर शाम को आऊंगी।” कहकर वह चली गई।
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