ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
“लेकिन कमरे का किराया तो देना होगा?”
भारती हंसकर बोली, 'नहीं। भैया छ: महीने का किराया दे गए हैं।”
शशि प्रसन्न न होते हुए भी इस व्यवस्था से सहमत हो गया। सारे सामान के साथ कवि को महाराज के होटल में प्रतिष्ठित करके भारती ऊपर अपने सोने के कमरे में लौट आई।
दूसरे दिन जब नींद टूटी तब भूखे रहने के कारण कमजोरी से उसका शरीर थका हुआ था।
जिस आदमी से भारती की मां ने विवाह किया था वह बड़ा दुराचारी था। उसके साथ इकट्ठे बैठकर ही भारती को भोजन करना पड़ता था। फिर भी किसी बासी या अस्वच्छ वस्तु को उसने कभी अपना खाद्य पदार्थ नहीं बनाया, छुआछूत की भावना उसमें नहीं थी लेकिन जहां-तहां, जिस-तिस के हाथों का भोजन ग्रहण करते हुए उसे घृणा होती थी। मां की मृत्यु के बाद से वह अपने ही हाथ से रसोई बनाकर खाती थी। लेकिन आज रसोई बना पाने की शक्ति उसके शरीर में नहीं थी। इसलिए होटल में रोटी और कुछ तरकारी तैयार कर देने के लिए उसने महाराज के पास सूचना भेज दी।
दासी भोजन की थाली लेकर आई तो भारती ने अपनी थाली और कटोरी लाकर मेज पर रख दी। दासी ने दूर ही से उसकी थाली में रोटी और कटोरी में तरकारी डालकर कहा, “लो भोजन कर लो।”
भारती ने बड़ी नर्मी से कहा, “तुम जाओ, मैं खा लूंगी।”
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