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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


शायद जाओगी?

हां, जरा जाकर देखूं तो क्या हुआ?

ज्ञाना ने कहा, आज सवेरे आकर महाराज जी से कैसी विनती करने लगे थे। मैंने सुनकर कहा, यह कौन-सी बात है। मनुष्य के संकट-विपत्ति में सहायता न करूंगी तो कब करूंगी। हाथ का काम पड़ा रह गया। जैसी थी वैसी ही घर से निकल पड़ी। भाग्य तो फिर भी....?

उन्हीं सब बातों के दोहराए जाने की आशंका से भारती घबरा उठा। बीच ही में रोककर बोली, तुमने संकट के दिनों में जो कुछ किया उसकी तुलना नहीं हो सकती। लेकिन अब देर मत करो दाई। एक गाड़ी मंगवा दो। मुझे जाना है। तब तक घर के काम-काज निबटा लेती हूं।

दाई गाड़ी लेने चली गई और दुर्दिन में सहायता पहुंचाने का आग्रह करके यह भी कहती गई कि घर का काम-काज मैं ही कर जाऊंगी। जबकि खाने-पीने की कोई चीज़ छुई तक नहीं गई है, तब उनकी भी सफाई कर देने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है।

गाड़ी आ गई तो भारती कुछ रुपए लेकर, घर-द्वार में ताला लगाकर चल पड़ी।

वह जब धर्मशाला में पहुंची तब दिन था। दूसरी मंज़िल के उत्तर में एक कमरा दिखाकर दरबान ने कहा, बंगाली बाबू भीतर ही हैं। और फिर बंगाली महिला को बंगला भाषा में ही समझाकर उसने बताया कि धर्मशाला में तीन दिन से अधिक ठहरने का नियम नहीं है। यह मियाद पूरी हो गई है। अगर कहीं मैनेजर साहब को मालूम हो गया तो उसकी नौकरी में भी गड़बड़ी मच जाएगी।

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